अभिनेता इरफान खान ने बॉलीवुड में हिन्दी की
स्थिति को लेकर जो कहा है वो गंभीर चिंता का विषय है। अपनी फिल्म ‘हिंदी
मीडियम’ को लेकर उत्साहित इरफान खान के मुताबिक देश की
शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी को प्रथामिकता मिलती है। हमारे देश में लोग अंग्रेजी
इस वजह से सीखते हैं कि उन्हें दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करनी होती है। इरफान
जोर देकर कहते हैं कि किसी भी भाषा में सिद्धहस्त होना बुरी बात नहीं है, लेकिन जब
आप किसी भाषा को सिर्फ इस वजह से सीखने की कोशिश करते हैं कि आप दूसरों पर
श्रेष्ठता साबित कर सकें, तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण होती है। अंग्रेजी को अन्य
भारतीय भाषा की तुलना में प्राथमिकता दिए जाने को वो औपनिवेशिक मानसिकता भी करार
देते हैं। इस पृष्ठभूमि में इरफान ने साफ किया कि बॉलीवुड के ज्यादातर अभिनेता अंग्रेजी
में सोचते हैं और फिर उसको हिंदी में कार्यान्वयित करते हैं।यहां तक तो ठीक है
लेकिन जब हिंदी का सारा कारोबार अंग्रेजी में होने लगे, हिंदी की लिपि बदलने की
कोशिश हो तो वह चिंता का सबब बन जाती है। यह तथ्य है कि बॉलीवुड की हिंदी की लिपि
देवनागरी नहीं है बल्कि रोमन है। कहा तो यहां तक जाता है कि जब कोई कहानीकार किसी
प्रोड्यूसर के पास या फिर अभिनेता के पास लेकर जाता है तो उससे कहानी को देवनागरी
में नहीं रोमन में लिखकर देने को कहा जाता है। अभिनेता और अभिनेत्रियों को भी
संवाद रोमन में लिखकर दिए जाते हैं। यह स्थिति सचमुच हमें सोचने पर विवश कर देती
है।
कुछ दिनों पहले अभिनेता मनोज वाजयेपी ने भी कुछ
इसी तरह की बातें की थीं और उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि अगर उनके पास
देवनागरी में कहानी नहीं आती है तो वो उसको सुनने या पढ़ने से मना कर देते हैं। लेकिन
मनोज वाजपेयी जैसे अभिनेता उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। सवाल यही है कि हिंदी को
लेकर बॉलीवुड में उदासीनता का माहौल क्यों है। क्यों देवनागरी को लेकर अभिनेताओं
और अभिनेत्रियों के बीच हिकारत का भाव रहता है। इसकी वजहों को ढूंढने पर जो सबसे
बड़ी वजह सामने आती है वह है नए अभिनेताओं का अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पढ़ा
होना। हिंदी तो वो उतना ही जानते समझते हैं जितना जरूरी होता है। उस भाषा को लेकर
उनके मन में किसी तरह का अनुराग नहीं है जिसको बोलने वाले उनको पलकों पर बिठाए
रखते हैं, उनको स्टार बनाते हैं। यहां बात सिर्फ पलकों पर बिठाने की नहीं है, यहां
तो बात सिनेमा के अर्थशास्त्र की भी है। इन सितारों को करोड़ों की कमाई भी इन्हीं
हिंदी भाषी प्रदेशों के दर्शकों से होती है। कारोबारी ईमानदारी भी कहती है कि आप
जिस भाषा से कमाई कर रहे हैं उस भाषा के प्रति आपकी एक जिम्मेदारी तो बनती ही है
उसको सहेजने, संजोने और संवर्धित करने का फर्ज भी बनता है। लेकिन हमारे सिनेमा के
सितारों को भाषा से क्या लेना देना उनको तो मतलब होता है अपने स्टारडम से और अपनी
फिल्मों की कमाई से। वो उनको रोमन में संवाद बोलकर भी मिल जाती है।
एक जमाना था जब हिंदी फिल्मों के गानों में खालिस
हिंदी की पदावलियों और शब्दालियों का उपयोग होता था। पंडित नरेन्द्र शर्मा का लिखा
गाना जिसे लता मंगेशकर की आवाज ने अमर कर दिया उसके शब्दों पर गौर करें- ज्योति
कलश छलके/हुए
गुलाबी,लाल सुनहरे/रंग दल बादल के। गीतकार की लेखनी यहीं
नहीं रुकती है। आगे पंडित जी लिखते हैं-/घर आंगन वन उपवन
उपवन/करती ज्योति अमृत के सींचन/मंगल
घट ढल के। अब यहां शब्दों के चयन पर गौर फर्माया जाए। इन दिनों अगर कोई ऐसा गीत
लिखकर ले जाए तो संगीतकार तो संगीतकार फिल्मकार भी उसे रद्दी के टोकरे में फेंक
देगा। संभव है कि अभिनेता और अभिनेत्री भी इसको अपने पर फिल्माने से मना कर दे। लेकिन पंडित नरेन्द्र शर्मा ने जो
रच दिया वो आज भी लोग चाव से सुनते हैं। लता मंगेशकर के बेहतरीन गानों में से एक
माना जाता है। दो पंक्तियों पर और गौर करने की जरूरत है- पात पात बिरबा हरियाला/धरती का मुख हुआ उजाला/सच सपने कल के। इसी गाने में अंबर,
कण जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। तो कहना कि कठिन हिंदी के श्रोता या दर्शक
नहीं है यह बिल्कुल गलत है। अब तो फिल्म के गीतों की क्या स्थिति होती जा रही है
इसपर कुछ कहना व्यर्थ है। सरकाए ले खटिया से लेकर लड़की पटाए ले मिस्ड कॉल से, जैसे
बोल लिखे जा रहे हैं।
इस तरह की हिंदी को लिखनेवाले लगातार ये तर्क देते हैं कि हमारे
युवा इसको पसंद करते हैं। बहुक विनम्रतापूर्वक ये सवाल उठाना चाहता हूं कि क्या
ऐसा कोई सर्वेक्षण हुआ है जिसमें ये पता चला हो कि हिंदी प्रदेशों के युवा अंग्रेजी
मिश्रित हिंदी पढ़ना,देखना, सुनना चाहते हैं। इसका उत्तर है नहीं। युवाओं के कंधे
पर बंदूक रखकर हिंदी को जख्मी करने का ये उपक्रम समझ से परे है। बल्कि हमें तो
लगता है कि ऐसा करके हम अपने युवाओं को कमतर आंकते हैं। पाठकों को याद होगा कि जब
अमिताभ बच्चन ‘कौन बनेगा
करोड़पति’ की हॉट सीट पर
बैठते हैं तो वो विशुद्ध हिंदी बोलते हैं और उनके संवाद हर किसी की जुबान पर होते
हैं। पंचकोटि जैसे शब्द को लोग समझने लगे। हो सकता है कि ये अमिताभ बच्चन की ताकत
हो लेकिन हिंदी को समझने में लोगों को दिक्कत तो नहीं आई। कहीं किसी भी कोने अंतरे
से ये आवाज तो नहीं आई कि इतनी कठिन हिंदी क्यों बोली जा रही है या फिर उस कठिन
हिंदी वाले कार्यक्रम को भारत के युवाओं ने देखना छोड़ दिया। दरअसल हिंदी को कठिन
और आसान के खांचे में बांटने की कोशिश ही गलत है। बोलचाल की हिंदी और साहित्य की हिंदी को अलग कर देखने की
प्रवृत्ति ने भाषा का नुकसान किया। नुकसान तो हर गली मुहल्ले में खुले
कांन्वेंटनुमा अंग्रेजी स्कूलों ने भी किया। अब अपनी हिंदी को लेकर लोगों के मानस
में एक स्पंदन हुआ है । जरूरत इस बात की है कि हम अपनी भाषा पर गर्व करें, उसको
गर्व के साथ अपनाएं और बढ़ाएं। हिंदी को लेकर मन में पलनेवाली कुंठा को दूर भगाएं।
1 comment:
कई फिल्म निर्माता से लेकर फिल्म अभिनेता-अभिनेत्री हिंदी फिल्मों से बड़ी प्रसिद्धि पाते हैं, पैसा कमाते हैं, सबकुछ मिलता हैं उन्हें हिंदी के कारण लेकिन अफ़सोस वे हिंदी बोलना नहीं सीख पाते, यदि बोलते हैं तो टूटी-फूटी हिंदी में वह भी अपनी हिंदी फिल्म के प्रमोशन के लिए
ऐसी ही विडम्बनाओं से भरा है हमारा भारत जिसे हम भारत कम इंडिया ज्यादा कहते हैं
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