‘समय- समय पर अनेक वादों और आदर्शों ने उम्मीदें दी थीं। जिन पर ठिठुरते हुए
हमने अपने हाथों को सेंका था, आज उनके कोयले मद्धिम हो चले हैं। सिर्फ राख बची रही
गई है जो फूंक मारने से कभी दायीं ओर जाती है, कभी बाईं ओर। जिस दिशा में जाती है,
हम उस तरफ भागते हुए कभी दक्षिणपंथी हो लेते हैं, कभी वामपंथी लेकिन राख-राख है, उसके
पीछे अधिक दूर तक नहीं भागा जा सकता। आखिर में अपने पास लौटना पड़ता है।‘ हिंदी के मूर्धन्य लेखक निर्मल वर्मा की ये बातें कब कही गईं थी, उसका काल
ठीक से याद नहीं पड़ता लेकिन इस वक्त भी उनकी कही बातें एकदम सटीक मालूम पड़ती हैं।
जब ठिठुरते हुए हाथ सेंके जा रहे थे तो उन कोयलों का रंग ‘लाल’ होता था, जो मद्धिम पड़ा और फिर अब जब राख बनकर हवा
में उड़ रहा है तब कभी कभार ऐसा होता है कि वो राख आपकी आंखों में पड़ जाए और आपको
तकलीफ दे। आंखों में राख पड़ने से कोई नुकसान नहीं होता है लेकिन वो कुछ समय के लिए
काफी तकलीफदेह होता है। अभी हाल ही में संगीत नाटक अकादमी में इस तरह की राख उड़ी थी
जो अकादमी के चेयरमैन शेखर सेन की आंखों में जा पड़ी और उसने उनको तात्कालिक रूप से
तकलीफ पहुंचाई। दरअसल हुआ यह कि संगीत नाटक अकादमी ने एक इब्राहिम अल्काजी की याद में
एक कार्यक्रम का आयोजन किया। जब कार्ड का ड्राफ्ट तैयार होकर आया तो उसको मीडिया में
लीक कर दिया गया। लीक किए कार्ड से भ्रम फैला कि दिल्ली के रवीन्द्र भवन स्थित मेघदूत
थिएटर का नाम बदलकर इब्राहिम अल्काजी ने नाम पर किया जा रहा है। उस कार्ड के आधार पर
सोशल मीडिया से लेकर अखबारों आदि में शोरगुल मचना शुरू हो गया। संगीत नाटक अकादमी के
चेयरमैन शेखर सेन की घेरबंदी शुरू हो गई। शेखर सेन पर इस बात को लेकर हमले शुरू हो
गए कि वो इब्राहिम अल्काजी को कालिदास से अहम मानते हैं। अजीब अजीब से तर्क गढ़े जाने
लगे। बैगर तथ्यों को जाने समझे शोर मचाने की ये एक ऐसी मिसाल है जिसपर कला-संस्कृति
जगत से जुड़े लोगों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। जब शोरगुल ज्यादा बढ़ा तो थिएटर
से गहरे जुड़ी वाणी त्रिपाठी ने विस्तार से लेख लिखकर भ्रम के इस जाले को साफ किया।
वाणी ने अपने लेख में मेघदूत थिएटर की ऐतिहासिकता और इब्राहिम अल्काजी के थिएटर के
योगदान को रेखांकित किया। वाणी ने इस बात को भी साफ किया कि रवीन्द्र भवन के परिसर
के इस खुले रंगमंच का नामकरण अल्काजी ने ही किया था । वाणी त्रिपाठी के लेख के बाद
इस पूरे विवाद पर से जाला हटना शुरू हो गया। फिर संगीत नाटक अकादमी की तरफ से भी इस
पूरे विवाद पर चेयरमैन शेखर सेन अपनी सफाई पेश की। अगर हम समग्रता में विचार करें तो
संगीत नाटक अकादमी से जुड़े पुराने लोगों ने विवाद उठाने की गरज से नए सिरे से काम
करना शुरू किया है। उन्होंने गलत बातों को फैलाकर विवाद की आंधी खड़ा करने की कोशिशें
शुरू कर दी है। लेकिन पंखे की हवा से बनाई गई कृत्रिम आंधी का कोई असर नहीं होता है।
फिर वामपंथ के अनुयायी लेखकों-कलाकारों- संस्कृतिकर्मियों का एक ऐसा संगठित तंत्र है
जहां किसी भी बात को या तथ्य को अपनी सुविधा के हिसाब से फैलाकर जनमानस को प्रभावित
या भ्रमित करने की कोशिश होती है। कितनी सफलता मिलती है इसका आंकलन होना शेष है। वामपंथी
गणेश जी देशभर में दूध पिलाने की घटना को आरएसएस से जोड़कर उनके अफवाह तंत्र को निशाने
पर लेते रहे हैं। लेकिन खुद वामपंथियों का अफवाह तंत्र बेहद मजबूत है और वो जब चाहें,
जैसे चाहें किसी को भी नाम दिला दें, बदनाम कर दें। पुरस्कार दिला दें या तिरस्कृत
कर दें। अपनी इस ताकत के बूते पर वो परसेप्शन की लड़ाई भी लड़ते रहे हैं, अब भी लड़
रहे हैं। गंभीर विषयों की चाशनी में दरअसल वो अपनी विचारधारा को मार्ग प्रशस्त कर रहे
होते हैं।
दरअसल
साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़ी अकादमियों और संस्थानों पर भले ही दो हजार चौदह
में सरकार बदलने के बाद से पुरानी व्यवस्था में बदलाव कर दिए गए हो लेकिन यह बदलाव
शीर्ष स्तर पर हुए हैं। चेयरमैन, अध्यक्ष आदि की भले ही नियुक्ति हो गई लेकिन उनको
काम करने के लिए पर्याप्त कर्मचारी आदि नहीं दिए गए हैं। अभी तो इन संस्थानों के मुखिया
को अपने कर्माचरियों के लिए ही मंत्रालय से संघर्ष करना पड़ रहा है, वो नया करने की
सोचने की हालत में ही नहीं है। कलाकारों को इन संस्थाओं का अगुआ बनाकर अच्छी पहल की
गई है लेकिन इन कलाकारों के साथ एक कुशल प्रशासक की नियुक्ति भी आवश्यक है। कुशल प्रशासक
इस वजह से कि सालों से जड़ जमाए बैठी विचारधारा को अगर चुनौती देनी है तो पहले इस व्यवस्था
को चुनौती देनी होगी । इसके अलावा जो लोग इन संस्थानों के कार्यकारी परिषद आदि में
मनोनीत किए गए हैं वो पुरानी व्यवस्था को बदलना तो चाहते हैं लेकिन कोई खतरा मोल नहीं
लेना चाहते हैं, किसी तरह के विवाद में पड़े बगैर शांति से संस्था को चलाने की कोशिश
हो रही है। जबकि जरूरत इस बात की है कि सालों से जंग खाई व्यवस्था को एक बारगी तो जोरदार
तरीके से हिलाने की जरूरत है। यहां इस बात की परवाह भी छोड़नी होगी कि विरोधी खेमे
के लोग क्या कहेंगे। अगर विरोधियों की चिंता की गई तो बदलाव के नतीजों में संदेह है।
दिल्ली के सांस्कृतिक गलियारे में इस बात की काफी चर्चा है कि नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन
आर्ट की पुरानी समिति ने दो हजार बीस तक के कार्यक्रमों को तय कर दिया है । अब अगर
दो हजार बीस तक का संस्था का काम तय है तो नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन आर्ट जो नए डायरेक्टर
जनरल नियुक्त किए गए हैं वो क्या करेंगे । उन उड़ती हुई राख को बैठकर उड़ाते रहेंगे? क्योंकि इनके करने के बहुत कुछ तो है नहीं । यह सिर्फ नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन
आर्ट की स्थिति नहीं है। मंत्रालय में बैठे कुछ अधिकारी भी नई सरकार के नामित इन संस्थाओं
के मुखिया की राह आसान बनाने की बजाए उसपर कांटे बिछाते रहते हैं। लालफीताशाही के फंदे
में फंसाकर बदलाव को रोकना अफसरशाही के लिए काफी आसान होता भी है। लालफीताशाही से इन
संस्थाओं को चलानेवाले इतने खफा हो गए थे कि उन्होंने दिल्ली में एक बैठक कर सामूहिक
रूप से अपनी नाराजगी का इजहार किया था। उच्चस्तरीय दखल के बाद उसके बाद से संस्कृति
मंत्रालय में काम को गति मिली थी।
सवाल
यह है कि इस सरकार पर सांस्कृतिक संस्थाओं पर कब्जे के आरोप भी लग रहे हैं, वामपंथियों
का अफवाह तंत्र इसको फैलाने के लिए बेहद सक्रिय भी है और किसी भी बड़े छोटे मौके को
हाथ से जाने नहीं देना चाहता है। बावजूद इस स्थिति के काम ज्यादातर वही हो रहे हैं
जो पहले से तय कर दिए गए हैं। हद तो तब हो जाती है कि इन्हीं संस्थाओं में से एक के
खर्चे पर विदेश जाकर एक इतिहासकार भारत के प्रधानमंत्री और मौजूदा सरकार को कठघरे में
खड़ा कर देती हैं, अपनी ही देश की चुनी हुई सरकार को फासिस्ट आदि कह देती हैं। दरअसल
यह तब होता है जब आपको अपने बौद्धिक सामर्थ्य पर भरोसा होता है लेकिन जब आप विचारधारा
वाले तर्क पेश करते हैं तो वो अंधविश्वास के रूप में सामने आता है। विचारधारा की इस
लड़ाई में वामपंथ के योद्धा हर तरह के हथियार से लैस हैं। पस्त जरूर हैं, लेकिन उनके
अंदर इतनी ताकत तो शेष बची है कि वो किसी को भी शक के घेरे में खड़ा कर देने के लिए
काफी है। किसी भी कार्यक्रम को वादित कर सकते हैं। उनसे वैचारिक रूप से लड़ा जा सकता
है लेकिन वैचारिक लड़ाई में वो जिस तरह के गैर वैचारिक औजारों का इस्तेमाल करते हैं
उनसे निबटने के लिए यह आवश्यक है कि सामने वाले भी उसको भांपकर अपनी तैयारी करें। संगीत
नाटक अकादमी में ङी अगर वाणी त्रिपाठी ने मोर्चा नहीं संभाला होता तो उन्होंने अकादमी
को बदनाम करने और शेखर सेन को लेकर एक भ्रम की ल्थिति तो बना ही दी थी। उनको एक तरीके
से परंपरा और विरासत विरोधी बताने की महिम शुरू हो चुकी थी। अब भी वक्त है कि इस वैचारिक
लड़ाई में अपने सामने वाले की चालों को समझा जाए और उनको निश्क्रिय करने के लिए उसी
तरह की कोशिशें भी की जाएं ।
1 comment:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-05-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2630 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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