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Saturday, December 31, 2016

नया वर्ष, नई किताबें, नया अंदाज

नए साल की आहट और दिल्ली में सात जनवरी से आयोजित होनेवाले विश्व पुस्तक मेले के मद्देनजर इन दिनों लेखकों के बीच और सोशल मीडिया पर प्रकाशित होनेवाली किताबों की जमकर चर्चा हो रही है । लेखक अपनी नई किताब को लेकर उत्साहित नजर आ रहे हैं तो हिंदी के प्रकाशकों ने भी नए वर्ष पर नई किताबों की प्रकाशन योजना को अंजाम पर पहुंचाना शुरू कर दिया है । किताबों का पहला सेट दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में जारी करने की तैयारी है । फेसबुक इन दिनों आनेवाली किताबों के कवर से अटा पड़ा है । तमाम तरह के छोटे बड़े मंझोले लेखक अपनी अपनी किताबों का कवर साझा कर रहे हैं और दोस्तों की शुभकामनाएं बटोर रहे हैं । कई प्रकाशकों ने तो बकायदा फेसबुक पर अपने पेज पर नई किताबों का प्रमोशन शुरू कर दिया है तो किसी ने फेसबुक पर अपने प्रकाशनों का विज्ञापन देना शुरू कर दिया है । हर किसी के जेहन में किसी भी तरह से दिल्ली विश्व पुस्तक मेला के सारा आकाश पर छाने की तमन्ना है । वरिष्ठ टीवी पत्रकार शाजी जमां की बहुप्रतीक्षित किताब अकबर (राजकमल प्रकाशन) की खासी चर्चा है और पाठकों को इस किताब को लेकर उत्सुकता भी है । काफी दिनों से अमेजन आदि पर इस किताब की प्री बुकिंग भी शुरू हो चुकी थी और एक दो लिटरेचर फेस्टिवल में इसका कवर भी जारी किया जा चुका था । बावजूद इसके इस किताब के प्रकाशन में देरी हुई । शाजी जमां के इसके पहले दो उपन्यास प्रेम गली अति सांकरी और जिस्म जिस्म के लोग भी प्रकाशित हो चुके हैं । अकबर उनके सालों के शोध का नतीजा है और लिटरेचर फेस्टिवल्स में जो उनकी बातचीत इस किताब को लेकर सुनने को मिली थी वह बेहद दिलचस्प और चौंकानेवाली रही है । हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की लंबी परंपरा रही है । वरिष्ठ लेखक शरद पगारे के दो ऐतिहासिक उपन्यासों की खासी चर्चा हुई थी । पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी और गन्धर्वसेन । अब शाजी जमां ने अकबर पर लिखकर इस परंपरा को आगे बढाया है । ये देखना दिलचस्प होगा कि पाठक शाजी की इस किताब को पाठक किस तरह से लेते हैं ।
दूसरी एक महत्वपूर्ण किताब जिसकी खासी चर्चा पिछले कई लिटरेचर फेस्टिवल में सुनने को मिली है वो है युवा लेखिका नीलिमा चौहान की किताब पतनशील पत्नियों के नोट्स ( वाणी प्रकाशन ) । इस किताब को लेकर भी प्रकाशक और लेखक दोनों खासे उत्साहित हैं और फेसबुक पर अलग से इसका पेज बनाकर पाठकों की उत्सकुता बढ़ाने का काम किया जा रहा है । पेसबुक के इस पेज पर लेखिका भी सक्रिय हैं और वो पाठकों से संवाद भी कर रही हैं । इस पेज पर बेहद दिलचस्प प्लाकॉर्ड के जरिए किताब की रिलीज डेट का काउंटडाउन भी चलाया जा रहा है । नीलिमा चौहान दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षिका हैं और सोशल साइट्स पर अपने बोल्ड लेखन के लिए जानी जाती हैं । उनकी इस किताब का हिंदी जगत को इंतजार है । कैसी होती हैं पतनशील पत्नियां या फिर पतनशील पत्नियों को लेखिका ने किस तरह से व्याख्यायित किया है यह जानना दिलचस्प होगा । एक और महत्वपूर्ण किताब आ रही है वह है प्रेमचंद साहित्य के मर्मज्ञ कमल किशोर गोयनका के संपादन में – प्रेमचंद कुछ संस्मरण ( सामयिक प्रकाशन) । इस किताब का भी पाठकों को इंतजार है क्योंकि कमल किशोर गोयनका हिंदी के ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के विभिन्न आयामों को ना केवल तलाशते रहते हैं बल्कि पाठकों के लिए उसको रुचिकर तरीके से पेश भी करते रहे हैं । कुछ दिनों पहले उन्होंने प्रेमचंद के उपन्यास गो-दान के दस जून उन्नीस सौ छत्तीस को छपे पहले संस्करण का जिस तरह से संकलित संपादित करके पेश किया था वह बेहद महत्वपूर्ण है । एक और किताब जिसका बहुत दिनों से हिंदी पाठकों को इंतजार था वह है फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार की आत्मकथा । मूलत: अंग्रेजी में द सब्सटेंस एंड द शैडो के नाम से प्रकाशित उपन्यास वजूद और परछाइयां ( वाणी प्रकाशन) के नाम से हिंदी पाठकों के लिए उपलब्ध होगा । अकबर और पतनशील पत्नियों को नोट्स को लेकर बने उत्सकुकता का जो वातावरण है उसको देखकर लगता है कि हिंदी पाठकों की रुचि साहित्य की शास्त्रीय विधाओं से इतर किताबों में बढ़ी है । कई प्रकाशकों से बात करने पर भी इस बात की पुष्टि होती है । यह सिर्फ इस साल की प्रवृत्ति नहीं है । इसकी पृष्ठभूमि काफी पहले से बन रही थी । लोग एक ही तरह की कहानियां, कविताएं और उपन्यास पढ़-पढ़कर उब गए थे । हिंदी के ज्यादातर लेखक इस बात को समझ नहीं पा रहे थे लिहाजा एक एक करके हर विधा में पाठकों की रुचि कम होती चली गई । सबसे पहले कविता पर इसका असर देखने को मिला और इसके पाठक इतने कम हो गए कि प्रकाशकों ने कविता संग्रह छापना लगभग बंद कर दिया । वरिष्ठ कवियों से लेकर स्थापित कवियों तक को अपने संग्रह छपवाने के लिए संघर्ष करना पड़ा । इन दिनों यही हाल कहानी का हो रहा है । फॉर्मूलाबद्ध कहानियां लिखते जाने से लेखक का नाम देखकर इस बात का अंदाज लग जाता है कि अमुक की कहानियां कैसी होंगी । बावजूद इसके पुस्तक मेले में कई कहानी संग्रह प्रकाशित होने जा रहे हैं । हंस कथा मासिक से लंबे समय तक जुड़े रहे कथाकार गौरीनाथ का कहानी संग्रह बीज-भोजी (अंतिका प्रकाशन), कथाकार वंदना शुक्ला का काफिला साथ और सफर तन्हा ( अनन्य प्रकाशन) से प्रकाशित हो रहा है । इसके अलावा कई दिग्गज कहानीकारों की कहानियों का संकलन भी प्रकाशित हो रहा है जिनमें नरेन्द्र कोहली और विजयदान देथा की लोकप्रिय कहानियां ( प्रभात प्रकाशन) शामिल हैं ।
हिंदी में अनुवाद पर काम कम हो रहा है लेकिन पाठकों की साहित्येत्तर रुचि के मद्देनजर प्रकाशकों ने इस ओर अपना फोकस किया है । हलांकि हिंदी पाठकों की संख्या को देखते हुए अनुवाद के दायरे को और फैलाना होगा । दरअसल हिंदी में  अनुवाद की एक दिक्कत और है । हिंदी में अनुवाद करने पर ना तो ज्यादा पैसा मिलता है और ना ही अच्छे अनुवादक मिलते हैं । गूगल से अनुवाद करनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है । बावजूद इसके दो हजार सत्रह में कई अच्छी अनूदित किताबें प्रकाशित हो रही हैं । मशहूर अमेरिकी एंकर ओपरा विनफ्रे की बेस्टसेलर किताब व्हाट आई नो फॉर श्योर का हिंदी अनुवाद ये जो है जिंदगी ( प्रभात प्रकाशन) छपकर आनेवाली है । इसी तरह से मशहूर लेखक ज्यां द्रेज और कमल नयन चौबे के संपादन में भारत में सामाजिक नीतियां: समकालीन परिप्रेक्ष्य (वाणी प्रकाशन) दो हजार सत्रह में प्रकाश्य है । मशहूर उद्योगपति एन आर नारायणमूर्ति की किताब मेरे बिजनेस मंत्र ( प्रभात प्रकाशन) और आस्टिन ग्रेनविल की किताब भारतीय संविधान ( वाणी प्रकाशन) से छपकर आनेवाली है । इस वक्त पूरी दुनिया में आतंकवादी संगठन आईएआईएस और उसकी कार्यप्रणाली के तिलिस्म को जानने की इच्छा है । जाहिर है कि इसमें हिंदी के पाठक भी शामिल हैं । हिंदी के पाठकों की इस क्षुधा को शांत करेगी पैट्रिक कॉकबर्न की किताब आईएसआईएस का आतंक ।  अनुवाद के अलावा अगर हम नजर डालें तो एक और महत्वपूर्ण किताब जो नए वर्ष में प्रकाशित होगी वह है अंग्रेजी और हिंदी की नई कविता पर केंद्रित अंगरेजी-हिंदी नयी कविता की प्रवृतियां ( सामयिक प्रकाशन) । उपन्यासों की अगर बात करें तो कई उपन्यास इस वर्ष भी प्रकाशित होंगी । इनमें कुसुम अंसल के उपन्यास परछाइयों का समयसार (सामयिक प्रकाशन) से प्रकाश्य है ।

दो हजार सत्रह में एक और प्रवृत्ति के जोर पकड़ने की आशंका है वह है पैसे देकर किताबें छपवाना । ऐसा नहीं है कि अभी पैसे देकर किताबें नहीं छप रही है लेकिन यह काम छिटपुट तरीके से हो रहा है । अब कुछ प्रकाशक सेल्फ पब्लिशिंग के नाम पर इसको संस्थागत रूप देने जा रहे हैं । सेल्फ पब्लिशिंग के नाम की सिर्फ आड़ होगी । एक प्रकाशक ने तो बकायदा एक पूरा विभाग इस काम में लगा रखा है और बजाप्ता रेटकार्ड तय कर दिया है । पचास प्रति छपवाने पर कितना,सौ प्रति छपवाने पर कितना बल्कि रेटकार्ड में तो पच्चीस प्रतियां छापने का भी प्रावधान रखा गया है । पैसे देकर पहले भी और अब भी किताबें छप रही हैं लेकिन जिस तेजी से इसका विस्ततार हो रहा है वो हिंदी साहित्य के लिए एक खतरनाक संकेत है । जिस तरह से अखबारों के खबरनुमा विज्ञापन या टेलीविजन के पैसे लेकर बने आधे घंटे के शो के दौरान विज्ञापन या मार्केटिंग इनीशिएटिव लिखकर चलाया या छापा जाता है उसी तरह से पैसे देकर छपी किताबों पर भी इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए या संकेत होना चाहिए कि यह किताब पैसे देकर छपवाई गई है या फिर सेल्फ फाइनिंसिंग योजना के तहत प्रकाशित है । यह होता भी रहा है जब हिंदी अकादमी या अन्य संस्थाओं के सहयोग से किताब छपती है तो उसका उल्लेख किताब पर होता है । इससे पारदर्शिता बनी रहेगी ।    

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