उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पांचवें चरण की वोटिंग के पहले चुनाव
आयोग ने एक बार फिर से सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से संयम बरतने की अपील की है ।
सभी दलों को लिखे खत में चुनाव आयोग ने कहा है कि इस तरह का कोई बयान ना दें जिससे
धर्म और राजनीति का घालमेल होता हो । चुनाव आयोग ने अपने नसीहत में यह भी कहा है
कि वोटरों को अपनी तरफ लुभाने के लिए धर्म का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि
इससे धार्मिक कटुता और ध्रुवीकरण का खतरा पैदा हो जाता है । चुनाव आयोग पहले भी इस
तरह की गाइडलाइंस जारी करती रही है लेकिन इसको सख्ती से लागू करवाने का कोई प्रयास
इस संवैधानिक संस्था की तरफ से दिखाई नहीं देता है । नियमित अंतराल पर एडवायजरी
जारी कर राजनीतिक दलों को उनके कर्तव्यों की याद दिलाई जाती है ।चुनाव आयोग ने राजनीतिक
दलों के नेताओं को लगभग आदेश दिया है कि वो इस तरह के बयानों से बचें जिसकी
व्याख्या से धार्मिक तनाव पैदा हो सकता है । चुनाव आयोग का मानना है कि मौजूदा समय में किसी
भी तरह का कोई भी बयान किसी क्षेत्र विशेष में सीमित नहीं रहता है और टीवी पर
प्रसारण के अलावा सोशल मीडिया के विस्तार से वो बिजली की गति से हर जगह पहुंच जाता
है । चुनाव आयोग के मुताबिक इसका असर उन इलाके के मतदाताओं के दिमाग पर पड़ता है
जहां चुनाव हो रहे होते हैं । कई बार तो उससे समाज में भी दरार पैदा होने जैसे
हालात पैदा होते हैं । चुनाव आयोग कोई नई बात नहीं कर रहा है । इसी साल सुप्रीम
कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में धर्म को चुनाव प्रचार से अलग करने का आदेश दिया था
। चुनाव आयोग के पास तो कानून का डंडा भी है लेकिन वो नेताओं के मसले पर नरम दिखाई
पड़ता है । चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में नेताओं के खिलाफ कार्रवाई
बहुत ही विरले होती है । ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग भी राजनीतिक दलों और उनके
नेतांपर सीधी कार्रवाई से बचता है । अभी हाल ही में एक अखबार की बेवसाइट पर जनता
की राय के नाम से सर्वेनुमा एक्जिट पोल छप गया था तो उसके संपादक और मालिक के
खिलाफ केस दर्ज करने के आदेश चुनाव आयोग ने दिया था । संपादक की तो गिरफ्तारी भी
हुई थी और बाद में वो जमानत पर छूटे थे । कितने नेताओं के मामले में चुनाव आयोग
ऐसा त्वरित कार्रवाई करता है ? कितने नेताओं को चुनाव के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन
में जेल जाना पड़ता है ? इसपर विचार किया जाना आवश्यक है ।
चुनाव आयोग की प्राथमिक जिम्मेदारी सही तरीके से चुनाव करवाने की है
और उसमें वो सफल रहता है । फ्री और फेयर इलेक्शन के बुनियादी सिद्धांत की रक्षा भी
करता है लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से चुनावों के दौरान एक दूसरे पर भाषायी
तीर चलते हैं उसको रोकने के लिए चुनाव आयोग को कदम उठाने की जरूरत है । जिस तरह से
राजनीतिक दल एक समुदाय विशेष को टिकट देकर और फिर उसका सार्वजनिक प्रचार करते हुए
उस समुदाय के वोटरों को लुभाने की कोशिश करते हैं यह तो परोक्ष रूप से धर्म के आधार
पर वोट मांगने की कोशिश जैसा है । यह वैसा ही मामला है जैसे हमारे देश में शराब के
विज्ञापन पर पाबंदी है लेकिन शराब कंपनियां उसी नाम से कोई अन्य उत्पाद बनाकर उसका
विज्ञापन कर ग्राहकों तक अपनी बात पहुंचाती हैं । ऐसा ही कुछ राजनीति दल भी कर रहे
हैं । अब चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वो इन सरोगेट विज्ञापनों की तरह सरोगेट
बयानों को भी चिन्हित करें और उनको रोकने के लिए उचित कार्रवाई करें । चुनाव आयोग
को धर्म के आधार पर वोट मांगने की मंशा को पहचान कर उसको रोकने के अलावा जाति के
नाम पर वोट मांगने की कोशिशों पर भी रोक लगानी होगी । अलां समाज महासभा, फलां
महासभा पर भीनजर रखनी होगी क्योंकि ये जातीय संगठवन चुनाव के दौरान कुकुरमुत्ते की
तरह उग आते हैं और राजनीतिक दल इनकी आड़ में अपनी सियासी रोटी सेंकते हैं । चुनाव आयोग
को इनके अलावा मर्यादाहीन बयानों पर भी रोक लगाने की दिशा में काम करना होगा । उत्तर
प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान इशारों में ही सही प्रधानमंत्री को गधा कहा गया
लेकिन कोई कार्रवाई नहीं, प्रधानमंत्री को रावण कहा गया, प्रधानमंत्री को आतंकवादी
कहा गया लेकिन चुनाव आयोग लगभग खामोश ही रहा । मुलायम सिंह यादव के मरने के वक्त
की घोषणा की गई, प्रियंका गांधी पर सेक्सिस्ट कमेंट किए गए लेकिन चुनाव आयोग नेताओं
की सफाई भर से ही संतुष्ट नजर आया । चुनाव
आयोग ये मानता है कि आज सूचनाओं के तेज संप्रेषण के दौर में देश के किसी कोने में
दिया गया बयान चुनाव वाले इलाके में असर डाल सकता है । यह टीवी का दौर है और
नेताओं को लगता है कि टीवी पर उनके भाषणों का वही हिस्सा दिखाया जाएगा जो
विवादस्पद होगा । स्वस्थ आलोचना कभी भी भाषा की मर्यादा को नहीं तोड़ती और यह सच
है कि जब भाषा की मर्यादा नहीं टूटती तो न्यूज चैनलों में स्पंदन नहीं होता । सारे
दिन चलनेवाले न्यूज चैनलों के इस दौर में नेताओं के विवादित या बिगड़े बोल हमेशा
प्राथमिकता पाते हैं । बार बार उन्हीं बयानों को दिखाया जाता है । टीवी और सोशल
मीडिया के दौर में भाषा अपनी सीमा रेखा का बार बार अतिक्रमण करती है । क्या चुनाव
आयोग को इसपर भीनजर रखने की जरूरत है इसपर विचार करवना भी आवश्यक है ।