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Saturday, March 11, 2017

साहित्य उत्सव की सार्थकता

एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त देशभर में करीब साढे तीन सौ लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं । अलग अलग भाषाओं में अलग अलग संस्थानों के बैनर तले । अगर बाजार की भाषा में कहें तो ये लिटरेचर फेस्टिवल अब उस स्तर पर पहुंच गए हैं जहां से आगे और ग्रोथ की गुंजाइश नहीं बनती है। कुछ भाषा के नाम पर होने लगे हैं तो कुछ क्षेत्र के नाम पर । इन लिटरेचर फेस्टिवलों में संजीदगी का भी ह्रास देखने को मिलने लगा है, सत्रों में भी और वक्ताओं में भी । कई वक्ता तो इसको घूमने फिरने के अवसर के तौर पर लेते हैं और बगैर तैयारी के इन साहित्यक जमावड़े में शामिल हो जाते हैं । लेकिन अभी हाल ही में दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में दो दिनों का हिन्दी महोत्सव संपन्न हुआ । इस महोत्सव की खास बात यह रही है कि ये छात्रों के बीच साहित्य की पैठ बढ़ाने की कोशिश करता दिखा । दो दिनों के कई सत्रों में गंभीर विषयों पर चर्चा करवाकर इस हिन्दी महोत्सव के आयोजक वाणी फाउंडेशन की युवा कर्ताधर्ता अदिति महेश्वरी ने आनेवाले दिनों में इस आयोजन के भविष्य के संकेत कर दिए हैं । इस आयोजन में सबसे खास बात यह रही है कि हिन्दी महोत्सव में सभी गुट, मठ, वाद, संप्रदाय के लोगों को जोड़ने की कोशिश की गई । इसके पहले हिंदी के आयोजनों में इस तरह का साहस कम ही दिखता था । तीन-चार साल पहले दिल्ली में कलमकार फाउंडेशन के आयोजन में एक मंच पर राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, विभूति नारायण राय और अब स्वर्गीय रवीन्द्र कालिया दिखाई दिए थे ।

हिन्दी महोत्सव के शहरों पर एक बेहद दिलचस्प चर्चा हुई जिसमें प्रोफेसर पुष्पेश पंत, शहरनामा फैजाबाद के लेखक यतीन्द्र मिश्र से युवा कथाकार अनु सिंह चौधरी ने बात की । पुष्पेश पंत ने पहाड़ से दिल्ली आकर रहने के अपने अनुभवों को स्वाद के आधार पर जिस तरह से विश्लेषित किया वो रोचक तो था ही किसी भी शहर को विश्लेषित करने का एक नया आधार भी देता था । शिक्षा पर कृष्ण कुमार का व्याख्यान हुआ । इस तरह के आयोजन के घंटे भर के सत्र में जब एक ही वक्ता बयालीस मिनट बोलें तो सत्र की उपयोगिता लगभग खत्म हो जाती है । ऐसे में सत्र संचालक की भूमिका बेहद अहम हो जाती है । लेकिन इस सत्र में संचालिका ने बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं किया जिससे संवाद एकालाप में बदल गया । कृष्ण कुमार की ख्याति एक शिक्षाविद के रूप में है लेकिन जिस तरह से उन्होंने शिक्षकों को कठघरे में खड़ा किया वह सोचने को तो मजबूर करता है ,लेकिन जिम्मेदार पद पर रहते हुए उन्होंने क्या किया, यह सवाल भी खड़ा होता है । विचारधारा और सृजन पर एक अन्य सत्र में लोकसभा टीवी के संपादक श्याम किशोर सहाय, वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल और वर्तिका नंदा के साथ इन पंक्तियों के लेखक ने भी शिरकत की । इस सत्र में यह बात निकल कर आई कि विचार की भूमि पर सृजन हो सकता है लेकिन विचारधारा बहुधा सृजन को बाधित करती है । वक्ताओं ने वामपंथी विचारधारा को भी कसौटी पर कसा । लोकप्रिय लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के साथ प्रभात रंजन की बातचीत भी अच्छी रही । लिटरेचर फेस्टिवल की चमक दमक से दूर छात्रों के बीच इस तरह के आयोजन के लिए मंच प्रदान करके इंद्रप्रस्थ कॉलेज की प्राचार्य बबली मोइत्रा श्रॉफ ने उदाहरण पेश किया है । साधुवाद । इन दिनों विश्वविद्यालयों में जिस तरह से सेमिनारों के नाम पर कुछ भी आयोजित करवाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली जाती है वैसे में इंद्रप्रस्थ की प्राचार्य ने एक नया रास्ता तलाश किया है । अब हिंदी अकादमी भी इसी तर्ज पर हिंदू कॉलेज में अपना साहित्य उत्सव कर रही है ।          

1 comment:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’होली के रंगों में सराबोर ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...