अब चुनाव हो गया, नतीजा आ गया, बैठो पांच साल तक । चुनाव के नतीजों के बाद इस तरह
के जुमले खूब सुनने को मिलते हैं । अगर कोई इलाका अपने जनप्रतिनिधि से नाराज होता है
तब भी यह बात उभर कर आती है कि अब तो निश्चित अवधि तक अमुक विधायक या सांसद को झेलना
ही होगा । यह इस वजह से होता है कि अभी जो जन प्रतिनिधित्व कानून हमारे देश में लागू
है उसमें जनप्रतिनिधियों को एक बार चुन लिए जाने के बाद पांच साल बाद होनेवाले चुनाव
में ही उसके भाग्य का फैसला मतदाता कर सकता है । इन पांच सालों में चाहे उसपर कितने
भी संगीन इल्जाम लगे उसका बाल भी बांका नहीं हो सकता है चंद अपवादों को छोड़कर, जिसमें
सदन को उसको हटाने का अधिकार है या फिर तीन साल से ज्यादा की सजा होने के बाद उसको
सांसदी या विधायकी छोड़नी पड़ती है । काफी लंबे समय से देश में इस व्यवस्था को लेकर
विमर्श होता आया है । सांसदों और विधायकों के आचरण में जिस तरह का लगातार क्षरण देखने
को मिल रहा है या जिस तरह से उनपर गैंगरेप से लेकर हत्या और अन्य वारदातों के संगीन
इल्जाम लगते रहे हैं उसकी पृष्ठभूमि में राइट टू रिकॉल की मांग समय समय पर होती रही
है । दो हजार ग्यारह में जब अन्ना हजारे ने भ्रश्टाचार के खिलाफ दिल्ली से अपनी मुहिम
की शुरुआत की थी उस वक्त भी राइट टू रिकॉल की मांग की गई थी । यूपीए टू के दौरान बड़े
बड़े घोटालों के सामने आने के बाद भी इस मांग ने जोर पकड़ा था । अब भारतीय जनता पार्टी
के युवा सांसद वरुण गांधी ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करने का एक प्रस्तावित
बिल पेश किया है । इस बिल के प्रस्ताव के मुताबिक किसी भी सांसद या विधायक के कामकाज
या आचरण से उसके मतदाता संतुष्ट नहीं हैं तो उसको निश्चित अवधि के बीच हटाया जा सकेगा
।भारतीय जनता पार्टी के सांसद वरुण गांधी के इस प्रस्तावित बिल के मुताबिक सांसद या
विधायक को दो साल के अंदर उनके कामकाज के आधार पर हटाने की प्रक्रिया प्रारंभ की जा
सकती है । लेकिन हटाने की यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होगी । प्रस्तावित बिल के मुताबिक
अगर जीते हुए प्रतिनिधि को मिले हुए वोट में से पचहत्तर फीसदी उनके कामकाज से खुश नहीं
हैं तो इस प्रक्रिया को उस इलाके का कोई भी मतदाता शुरू कर सकता है । इसके लिए उसको
संबधित सदन के स्पीकर के पास अपना पक्ष रखना होगा कि वो क्यों अमुक विधायक या सांसद
को हटाना चाहते हैं । अपने आवेदन पत्र के साथ उस मतदाता को उस मतदान क्षेत्र के एक
चौथाई वोटरों के दस्तखत भी अपने समर्थन में जुटाने होंगे ।
प्रस्तावित बिल के मुताबिक स्पीकर को जब इस तरह का आवेदन पत्र मिलेगा तो वो उसको
चुनाव आयोग को इसकी प्रामाणिकता की जांच के लिए भेजेंगे । चुनाव आयोग को इस आवेदन पत्र
के साथ एक चौथाई वोटरों के दस्तखत की प्रामाणिकता की जांच करने का दायित्व भी दिया
जाएगा । इसके बाद चुनाव आयोग उस मतदान क्षेत्र में दस जगहों पर वोटिंग करवाएगा । इस
वोटिंग में अगर चुने गए विधायक या सांसद को मिले वोट का तीन चौथाई उसको हटाने के पक्ष
में होता है तो उसको हटाने का फैसला माना जाएगा । अब यह प्रक्रिया उपर से दिखने में
जितनी आसान लगती है दरअसल उतनी है नहीं । यह एक बेहद जटिल प्रक्रिया है । इसको लागू
कैसे किया जाएगा । कौन से वो आधार होंगे जिसकी बिनाह पर कोई भी मतदाता अपने निर्विचित
प्रतिनिधि को हटाने की मांग कर सकेगा । क्या उन आधारों की इजाजत संविधान देता है, आदि
आदि ।इसके अलावा एक और दिक्कत आ सकती है वह है कि चुनाव आयोग किस तरह से आवेदन पत्र
के साथ नत्थी किए गए मतदाताओ के दस्तखत का सत्यापन करेगा । उसमें कितना वक्त लगेगा
। एक अनुमान के मुताबिक एक सांसद के चुनाव में करीब पंद्रह सत्रह लाख लोग वोट करते
हैं । अगर पंद्रह लाख वोट भी माने जाएं तो आवेदन के साथ पौने चार लाख वोटरों के हस्ताक्षर
का सत्यापन करना होगा । क्या यह प्रक्रिया व्यावहारिक है । या फिर कोई और मैकेनिज्म
बनाने के बारे में विचार करना होगा । वरुण गांधी भी इस बात को मानते हैं कि उनका जो
प्रस्तावित बिल है वह बहस का एक आधार प्रदान करता है और इस कानून को लागू करने के पहले
इसकी प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए जो भी सुझाव आते हैं उसका स्वागत होगा । अब जबकि
वरुण गांधी ने एक बार फिर से इस राइट टू रिकॉल को कानूनी जामा पहनाने की पहल शुरू की
है तो इस तरह के तर्क फिर से सामने आने लगे हैं ।
राइट टू रिकॉल के पक्ष और विपक्ष में भी कई तर्क है । इस कानून की पैरोकारी करनेवालों
का दावा है कि इसके लागू होने से जनप्रतिनिधियों को अपने कानम के प्रति ज्यादा जवाबदेह
बानाय जा सकता है । उनका तर्क है कि हाल के दिनों में जिस तरह से चुनाव जीतने के बाद
जनप्रतिनिधि गायब हो जाते हैं और जनता की परवाह नहीं करते हैं, राइट टू रिकॉल के लागू
हो जाने के बाद से जनप्रतिनिधि अपने काम को लेकर अपेक्षाकृत ज्यादा गंभीर हो पाएंगे
। इसके पक्षधर इस बात की वकालत भी करते हैं कि इसके लागू होने से राजनीति के अपराधीकरण
और राजनीति में भ्रष्टातार पर भी पर भी अंकुश लगया जा सकेगा । इसके पक्ष में एक तर्क
यह भी दिया जाता है कि अगर किसी को किसी का चुनाव करने का अधिकार है तो उसको अपने चुने
हुए को हटाने का हर भी होना चाहिए । कुछ लोग तो यहां तक तर्क देते हैं कि अगर ये लागू
होता है तो चुनाव में धनबल के इस्तेमाल पर भी रोक लगेगी क्योंकि चुनाव लड़नेवालों के
अवचेतन मन में यह बात होगी कि जनता जब चाहे उनको हटा भी सकती है । इसके विरोधियों का
सबसे मजबूत तर्क ये है कि इस कानून के लागू होने से लोकतंत्र के अराजक तंत्र में बदल
जाने का खतरा पैदा हो जाएगा । इस तर्क के मुताबिक जनप्रतिनिधियों के सर पर हमेशा रिकॉल
की तलवार लटकती रहेगी और वो किसी भी तरह का जोखिम लेने से बचने की कोशिश करते रहेंगे
। किसी भी क्रांतिकारी सुधार की पहल करने से पहले लाख बार सोचेंगे । यह स्थिति किसी
भी लोकतंत्र या उनसे जनप्रतिनिधियों के लिए आदर्श स्तिति नहीं हो सकती है । भारत में
जहां सालों भर किसी ना किसीतरह के चुनाव चलते रहते हैं उसमें अगर ये राइट टू रिकॉल
लागू हो जाता है तो चुनाव आयोग को सामान्य चुनाव कराने के अलावा रिकॉल चुनाव भी करवाते
रहने होंगे । यह स्थिति भी अराजक स्थिति हो सकती है । इसेक विरोधियों का एक तर्क यह
भी है कि इसके लागू होने से जनप्रतिनिधियों को संविधान में मिले अधिकारों की कटौती
भी संभव है ।
हमारे देश में जिस तरह से धर्म और जाति के आधार पर चुनाव होते हैं उसमें राइट टू
रिकॉल के लागू होने से एक अलग किस्म की सामाजिक संरचना के जन्म लेने का खतरा भी है
जिसमें जनप्रतिनिधियों को उसके काम के आधार पर नहीं बल्कि उसकी जाति और धर्म के आधार
पर रिकॉल का खतरा रहेगा । इसलिए इस तरह के कानून पर विचार करते समय उसकी जटिलताओं पर
भी सूक्ष्मता से विचार किया जाना चाहिए । पश्चिम के देशों का उदाहरण देने के पहले हमें
अपने देश की स्थितियों और परिस्थितियों को समझना होगा क्योंकि बगैर सोचे समझे आयातित
प्रवृत्तियों से लाभ की बजाए नुकसान का खतरा है ।
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