दिल्ली
के रामजस कॅालेज में छात्रों के संगठनों के बीच जारी बवाल के बीच गुरमेहर कौर के एक
ट्वीट और उसके बाद उस पर मचे घमासान के बाद एक बार फिर से अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर
विमर्श का दौर शुरू हो गया है । गुरमेहर ने अपने एक ट्वीट में अखिल भारतीय विद्यार्थी
परिषद के खिलाफ टिप्पणी करने के बाद उसकी सोशल मीडिया पर घेरेबंदी शुरू हो गई । कहा
यह गया कि विद्यार्थी परिशद से जुड़े लोगों ने उसको रेप तक की धमकी दे डाली । इसके
पहले राजमजस क़लेज के सेमिनार के खिलाफ भी काफी हल्ला गुल्ला मचा था । इस पूरे मसले
को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर देखना ही प्राथमिक तौर पर उसको गलत दिशा में मोड़ना
है । गुरमेहर कौर ने अपनी बात रखी और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप अन्य लोगों ने उसकी आलोचना
की । अब आलोचना का सवर क्या था इसपर बात होनी चाहिए । क्या वो स्वर मर्यादित है या
फिर सीधे सीधे उसको अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर छोटी सी घटना के तूल देने जैसा नहीं
होगा । गुरमेहर कौर को रेप की धमकी कानून व्यवस्था से जुड़ा मामला है और पुलिस को सख्ती
से धमकी देने वाले की पहचान कर उसको दंडित करवाना चाहिए । दरअसल काफी लंबे समय से हमारे
देश में कानून व्यवस्था के मसले को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर देखे जाने की प्रवृत्ति
ने जोर पकड़ा । राजनैतिक स्कोर सेट करने के लिए अभिव्यक्ति की आजादी को ढाल की तरह
इस्तेमाल किया जा रहा है । भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) मके मुताबिक बोलने
और लिखने की आजादी हमारा मौलिक अधिकार है लेकिन यह अधिकार पूर्ण नहीं है, संविधान कुछ शर्तों के साथ यह अधिकार अपने नागरिकों को देता है । यह अधिकार
तबतक मिलता है जबतक कि् दूसरे इससे आहत ना हों ।
अभिव्यक्ति की आजादी संविधान हमें देता है लेकिन वही संविधान कुछ जिम्मेदारियां
भी तय करता है । अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा तो संविधान के पहले संशोधन के वक्त बहुत
साफ कर दी गई थी । आजादी के बाद जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी अखंड भारत को लेकर आंदोलनरत
थे तो उस वक्त उनके भाषणों को पाकिस्तान युद्धोन्माद बढ़ानेवाला मानते हुए आपत्ति जता
रहा था । पाकिस्तान की शिकायत और नेहरू लियाकत समझौते के बाद तय हुआ कि अभियक्ति की
आजादी की सीमा तय की जाए और फिर संविधान का पहला संशोधन हुआ जिसमें इसकी सीमा तय कर
दी गई । तब बहाना बना था मद्रास से निकलनेवाली पत्रिका क्रासरोड और राष्ट्रीय संघ से
जुड़ी पत्रिका आर्गेनाइजर में छप रहे लेख । क्रासरोड में नेहरू की नीतियों के खिलाफ
लगातार छप रहा था जिसको लेकर नेहरू उसपर अंकुश लगाना चाहते थे । कोर्ट ने सरकार के
कदमों को दरकिनार करते हुए क्रासरोड के लेखों को संविधानसम्मत माना था । उसके बाद ही
संविधान में संशोधन की कवायद शुरू की गई थी । संविधान के प्रथम संशोधन के पहले अभिव्यक्ति
की आजादी का अधिकार पूर्ण था लेकिन इस संशोधन के बाद इसका दायरा तय कर दिया गया । बावजूद
इसके हमारे बौद्धिकों का एक वर्ग हर मसले को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले की तरह देखता
और रिएक्ट करता है । कानून व्यवस्था के मसले को, या फिर जिस तरह के मसले आईपीसी की धारा 295 ए के तहत आते हैं उसको भी संविधान
के अनुच्छेद 19(1)(ए) से जोड़कर प्रचारित किया जाता है । अब वक्त आ गया है कि छोटी
छोटी घटानओं को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर प्रचारित करना बंद किया जाए वर्ना जब
बड़े संकट से हमारा सामना होगा तो हम ढीले पड़े होंगे क्योंकि भेड़िया आया,
भेड़िया आया के शोर में हम आसल कर जाएंगे । वह स्थिति ज्यादा खतरनाक
होगी ।
No comments:
Post a Comment