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Saturday, March 4, 2017

असहिष्णुता का झंडाबरदार बेनकाब

नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बनी केंद्र सरकार को लेकर एक खास विचारधारा के लेखकों के बीच बेचैनी दिखाई देती है । इस खास विचारधारा के लोगों ने मई दो हजार चौदह के बाद से देश में फासीवाद से लेकर असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी पर आसन्न खतरे को लेकर खूब छाती कूटी है । पिछले साल कई लेखकों और कलाकारों ने पुरस्कार वापसी समूह में शामिल होकर केंद्र सरकार को घेरने का उपक्रम किया था । पुरस्कार वापसी से किसको क्या फायदा क्या नुकसान हुआ यह तो देश के लोगों ने देखा । लेखकों-कलाकारों की विश्वसनीयता भी सवालों के दायरे में आई । इन दिनों एक बार फिर से दिल्ली युनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज को लेकर पुरस्कार वापसी गैंग सक्रिय हो गया है । जेएनयू के वक्त कन्हैया कुमार इनके नायक थे और इस वक्त गुरमेहर कौर । पुरस्कार वापसी पार्ट वन के दौर में एक हिंदी के लेखक ने खूब सुर्खियां बटोरी थी जिनका नाम था उदय प्रकाश । हिंदी में कहानियां और कविताएं लिखते हैं और उपन्यास की विधा में साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने में सफल रहे हैं । यह उदय प्रकाश की प्रतिभा का ही कमाल था कि साहित्य अकादमी ने उनकी लंबी कहानी को उपन्यास मानते हुए उनको पुरस्कृत करने का फैसला किया था । उदय प्रकाश हिंदी साहित्य में अपनी आस्था बदलने के लिए मशहूर रहे हैं । खैर उदय प्रकाश के साहित्यक और गैर साहित्यक कृत्यों पर आगे बात होगी । पिछले दिनों मुंबई में आयोजित लिट ओ फेस्ट में उदय प्रकाश का असली चेहरा देखने को मिला । उदय प्रकाश पिछले दो साल से असहिष्णुता और फासीवाद के विरोध के गढ़े हुए नायक के तौर पर सामने आए हैं । लेकिन जिन लोगों ने उनकी मेहनत के साथ उनकी इस छवि का निर्माण किया उनको या तो उदय प्रकाश के अतीत के बारे में पता नहीं था या विकल्पहीनता के चलते उन्होंने इस तरह का कदम उठाया । यह उस वजह से कह रहा हूं कि उदय प्रकाश अपनी कहानियों के साथ साथ सार्वजनिक जीवन में भी जादुई यथार्थ गढ़ते चलते हैं, वैसा यथार्थ जो उनके सामने मुनाफे के द्वार खोलता चलता है ।
मुंबई लिट-ओ-फेस्ट के दौरान उदय प्रकाश ने खुद का फासीवादी और असहिष्णु चेहरा सामने रखा जब उन्होंने मेरे साथ सत्र में बैठने से इंकार कर दिया । पूरा किस्सा कुछ उस तरह का रहा कि फेस्टिवल शुरू होने के पहले वो मुंबई पहुंचे और वहां पहुंचते ही उनको पता पड़ा कि अन्य वक्ताओं के साथ वो भी उस सत्र में हैं जिसका संचालन उनको करना था । यह पता चलते ही उदय प्रकाश भड़त गए और उन्होंने आसमान सर पर उठा लिया और आयोजकों तक यह संदेश पहुंचाने लगे कि वो वापस लौटना चाहते हैं । होटल के कमरे में पहुंचकर जब उनको यह पता चला कि रसरंजन आदि की व्यवस्था आयोजकों की ओर से नहीं होकर स्वयं करनी है तो गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा । देर रात तक मान मनौव्वल का दौर चलता रहा । आयोजकों की ओर से मुझे ये जानकारी मिल रही थी कि उदय प्रकाश ने सामान पैक कर लिया है और वो वापस लौटना चाहते हैं । आयोजक मुझसे ये जानने की कोशिश कर रहे थे कि दरअसल उदय प्रकाश मुझसे खफा क्यों हैं क्योंकि उदय ने साफ कर दिया था कि वो किसी भी कीमत पर उस सत्र में नहीं बैठने वाले हैं जिसका संचालन मुझे करना था । उदय ने मेरे बारे में कई आपत्तिजनक बातें भी कही । आयोजक पर यह दबाव बनने लगा था कि वो होटल में आकर उदय प्रकाश से मिलें और उनको मनाने की कोशिश करें । इस लिट फेस्ट की आयोजक स्मिता पारिख टस से मस नहीं हो रही थी और वो अतत: उनको मनाने नहीं आईं । मुझे बताया गया कि उन्होंने ये संकेत दे दिया कि  दोनों उनके सम्मानित अतिथि हैं और अगर उदय जी को तकलीफ है तो वो अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हैं । इसके बाद मामला किसी तरह शांत हुआ और उदय प्रकाश अगले दिन शाम को वापस दिल्ली लौट आए । जब से असहिष्णुता का विवाद चला है तब से यह मुझे हवा हवाई मुद्दा लगता था लेकिन पहली बार मेरी मुलाकात असहिष्णुता से हुई और साहित्यक अस्पृश्यता का अनुभव हुआ । असहिष्णुता का प्रतिनिधित्व वो शख्स कर रहा था जिसने पिछले साल साहित्य अकादमी पुरस्कार को वापस करने का एलान कर सुर्खियां बटोरी थी ।
दरअसल उदय की पीड़ा यह रही है कि पुरस्कार वापसी के दौर में भी और उसके पहले भी मैंने उनके दोहरे चरित्र को लगातार उजागर किया है । जब उन्होंने गोरखपुर में गोरक्षपीठ के कर्ताधर्ता और बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथो पहला 'नरेन्द्र स्मृति सम्मान' लिया था तो उस वक्त भी मैंने अपने इसी स्तंभ में चर्चा की थी । उदय प्रकाश सार्वजनिक जीवन में कई दशकों से वामपंथी आदर्शों की दुहाई देते रहे हैं लेकिन योगी से  सम्मान ग्रहण के बाद उनकी नैतिक आभा निस्तेज हो गई थी । उदय को नजदीक से जानने वालों का दावा है कि उदय प्रकाश हमेशा से अवसरवादी रहे हैं और जब भी, जहां भी मौका मिला है उन्होंने इसे साबित भी किया है । परिस्थितियों के अनुसार उदय प्रकाश अपनी प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धताएं तय करते हैं, भले ही उसको कोई नैतिक आवरण में ढंक कर । उदय प्रकाश ने अपनी कृति- सुनो कारीगर- को लगभग दर्जनभर साहित्यकारों को समर्पित किया था।एक साथ दर्जनभर से ज्यादा साहित्यकारों/आलोचकों को साधने की कोशिश । उदय प्रकाश भारत भवन की पत्रिका पूर्वग्रह से भी जुड़े रहे हैं,जब उदय प्रकाश को पूर्वग्रह से बाहर होना पड़ा था तो उदय जी अशोक वाजपेयी और उनकी मित्रमंडली को 'भारत भवन के अल्सेशियंस' तक कह डाला था । उदय प्रकाश अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और साहित्यक मर्यादा भूलकर अपने विरोधियों पर बिलो द बेल्ट हमला करते हैं । रविभूषण ने जब इनकी कहानियों पर विदेशी लेखकों की छाया की बात की थी तो मामला कानूनी दांव-पेंच में भी उलझा था ।
वर्तमान साहित्य के मई दो हजार एक के अंक में उपेन्द्र कुमार की कहानी 'झूठ का मूठ' छपी थी तो उस वक्त भी विवाद हुआ था कि इस कहानी के केंद्र में उदय हैं । उस कहानी पर सुधीश पचौरी ने लिखा था- अरसे से हिंदी कथा लेखन में एक न्यूरोटिक लेखक कई लेखकों को अपने मनोविक्षिप्त उपहास का पात्र बनाता आ रहा था । पहले उसने एक महत्वपूर्ण कवि की जीवनगत असफलताओं को अपनी एक कहानी में सार्वजनिक मजाक का विषय बनाया । फिर वामपंथी गीतकार की असफल प्रेमकथा का सैडिस्टिक उपहास उड़ाने के लिए कहानी लिखी । किसी ने रोका नहीं तो, तो जोश में कई हिंदी अद्यापकों और आलोचकों के निजी जीवन पर कीचड़ उचालनेवाली शैली में कविताएं भी लिख डाली ।  किसी दीक्षित मनोविक्षिप्त की तरह उसने ये समझा कि उसे सबको शिकार करने का लाइसेंस हासिल हो गया है । उसके शिकारों में से उक्त गीतकार तो आत्महत्या तक कर बैठा ।  हिंदी के कई पाठक उसकी आत्महत्या के पीछे का कारण इस साडिज्म को भी मानते हैं । यह लेखक दरअसल स्वयं एक 'माचोसाडिस्ट' है जो दूसरों को अपने 'मर्दवादी परपीड़क विक्षेप' में जलील करता और सताता आया है । यह पहली कहानी है जिसने एक दुष्ट शिकारी का सरेआम शिकार किया है । शठ को शठता से ही सबक दिया है ।'

उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी लंबी कहानी को उपन्यास बताकर दिया गया । पुरस्कार की चयन समिति की बैठक में जो बातें हुई, जो सौदेबाजी हुई उसने पुरस्कार को संदिग्ध बना दिया था । जूरी में अशोक वाजपेयी, चित्रा मुद्गल और मैनेजर पांडे थे । बैठक शुरू होने पर अशोक वाजपेयी ने रमेशचंद्र शाह का नाम प्रस्तावित किया था लेकिन उसपर मैनेजर पांडे और चित्रा मुदगल दोनों ने आपत्ति की । जब शाह के नाम पर सहमति नहीं बनी तो अशोक वाजपेयी ने उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित कर दिया था । मैनेजर पांडे ने जोरदार विरोध किया क्योंकि वो उदय प्रकाश की कहानी पीली छतरी वाली लड़की से आहत थे । मैनेजर पांडे ने मैत्रेयी पुष्पा का नाम अकादमी पुरस्कार के लिए बढाया । अब चित्रा जी के पास अशोक जी का समर्थन करने के अलावा कोई चारा नहीं था । इस तरह उदय प्रकाश को एक के मुकाबले दो मतों से साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । उदय प्रकाश का हिंदी साहित्य को लेकर अपना एक फ्रस्टेशन है । उनको लगता है कि उनको जितना मिलना चाहिए था उतना साहित्य से मिला नहीं,उनकी प्रतिभा का साहित्य में सही इस्तेमाल नहीं हो पाया । हो सकता है इन्ही वजहों ने मनोवैज्ञानिक रूप से उदय प्रकाश को कमजोर कर दिया हो और वो अपने ध्येय को प्राप्त करने के चक्कर में रास्ते से बार बार फिसलते रहे हों । उदय प्रकाश की उन्हीं फिसलनों और विचलनों में से असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी का खेल भी खेला था लेकिन मुंबई लिट ओ फेस्ट के दौरान इस खेल से पर्दा हट गया । 

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