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Thursday, April 27, 2017

नक्सलियों के ‘गन’तंत्र पर हल्लाबोल

सुकमा में नक्सलियों के तांडव ने एक बार फिर से भारतीय गणतंत्र को चुनौती दी है । सीआरपीएफ के जवानों को घेर कर कत्ल करनेवाले नक्सलियों ने इस इलाके में तैनात राज्य के खुफिया तंत्र की पोल खोलकर रख दी है। घात लगाकर और गांववालों की आड़ में जिस तरह से नक्सलियों ने जवानों को मौत के घाट उतार दिया वो सरकार के लिए बेहद चिंता की बात है। राज्य और केंद्र सरकार के नुमाइंदे लगातार कड़ी कार्रवाई की बात कर रहे हैं लेकिन नियमित अंतराल पर नक्सली जिस तरह से सुरक्षा बलों के जवानों की हत्या कर रहे हैं उससे उनके बुलंद हौसलों का अंदाजा लगाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ खासकर सुकमा इलाके में नक्सलियों पर काबू करने के लिए छत्तीसगढ़,ओडिशा और तेलांगाना की सरकार को मिलकर एक कार्यसोजना पर काम करना होगा। तीनों राज्यों की खुफिया तंत्र को मजबूत कर इनपुट साझा करने और बेहतर तालमेल का तंत्र बनाना होगा। जिस दिन सुकमा में नक्सलियों ने खून की होली खेली उसके एक दिन पहले मैं रायपुर में था । वहां के प्रबुद्ध जनों के साथ बातचीत में नक्सल समस्या पर भी बात हुई । एक सज्जन ने बहुत सही तरीके से कहा कि नक्सली अगर हिंसा छोड़कर पिछड़े इलाके का विकास करने लगें तो जनता उनकी दीवानी हो जाएगी। वो अगर सड़क काटने के बजाए पुल बनाने में लग जाएं तो उस इलाके की जनता उनको समर्थन देगी । अभी जनता जान के डर से समर्थन दे रही है लेकिन अगर नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़कर विकास के रास्ते पर आते हैं तो सूरत कुछ अलग होगी। फिरक लोकतंत्र में उनकी भागीदारी भी बढ़ेगी। लेकिन उनकी तो गनतंत्र में आस्था है गणतंत्र में नहीं ।
हाल के दिनों में नक्सलियों ने जिस तरह से अपने प्रभाव वाले इलाकों में रंगदारी, वसूली, लड़कियों को जबरन उठाकर शादी करने की घटनाओं को अंजाम दिया है उसकी जड़ में ना तो विचारधारा हो सकती है और ना ही किसी लक्ष्य को हासिल करने का संघर्ष । कौन सी विचारधारा इस बात की इजाजत दे सकता है शिक्षा के मंदिर स्कूल को बम से उड़ा दिया जाए और आदिवासी इलाकों के बच्चों को शिक्षा से वंचित कर दिया जाए । दरअसल नक्सलियों की एक रणनीति यह भी है कि आदिवासियों को शिक्षित नहीं होने दो ताकि उनको आसानी से बरगलाया जा सके । अधिकारों के नाम पर बंदूक उठाने के लिए अशिक्षित आदिवासियों को प्रेरित करना ज्यादा आसान है । इन सबके उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ अपराध की मानसिकता है और सरकार को नक्सलियों से अपराधी और हत्यारे की तरह सख्ती के साथ निबटना चाहिए ।

सरकार के अलावा इस देश के तथाकथित व्यवस्था विरोधी बुद्धिजीवी नक्सलियों के रोमांटिसिज्म से ग्रस्त हैं और नक्सलियों के वैचारिक समर्थन को जारी रखने की बात करते हैं । उन्हें नक्सलियों के हिंसा में अराजकता नहीं बल्कि एक खास किस्म का अनुशासन नजर आता है । नक्सलियों की हिंसा को वो सरकारी कार्रवाई की प्रतिक्रिया या फिर अपने अधिकारों के ना मिल पाने की हताशा में उठाया कदम करार देते हैं । नक्सल मित्रों को सुरक्षा बलों के तथाकथित अत्याचार नजर आते और उनकी कार्रवाई को राज्य सत्ता की संगठित हिंसा तक करार देते हैं। दरअसल नक्सलियों के विचारधारा के रोमांटिसिज्म से ग्रस्त ज्यादातर लोग मार्क्सवाद के बड़े पैरोकार हैं या वैसा होने का दावा करते हैं । दरअसल मार्क्सवादियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनकी दीक्षा ही हिंसा और हिंसकराजनीति में होती है  उन्नीस सौ साठ में विभाजन के बाद सीपीआई तो लोकतांत्रिक आस्था के साथ काम करती रही लेकिन सीपीएम तो सशस्त्र संघर्ष के बल पर भारतीय गणतंत्र को जीतने के सपने देखती रही  चेयरमैन माओ का नारा लगानेवाली पार्टी चीन केतानाशाही के मॉडल को इस देश पर लागू करने करवाने का जतन करती रही  चीन में जिस तरह से राजनीतिक विरोधियों को कुचल डाला जाता है , विरोधियों का सामूहिक नरसंहार किया जाता है वही इनके रोल मॉडल बने  उसी चीनी कम्युनिस्ट विचारधारा की बुनियाद पर बनी पार्टी भारत में भी लगातार कत्ल और बंदूक की राजनीति को जायज ठहराने में लगी रही । कुछ सालों पहले केरल में एक मार्क्सवादी नेता ने खुले आम सार्वजनिक सभा में हिंसा और मरने मारने की बात की थी । 
अब वक्त आ गया है कि हमें देखना होगा कि जिनकी दीक्षा ही हिंसा और हिंसक राजनीति से शुरू होती है और जिनकी आस्था अपने देश से ज्यादा दूसरे देश में हो उनकी बातों को कितनी गंभीरता से ली जानी चाहिए । मेरा मानना है कि मार्क्स और माओ के इन अनुयायियों की बातों का बेहद गंभीरता से प्रतिकार किया जाना चाहिए । देश की जनता को उनके प्रोपगंडा और उसके पीछे की मंशा को बताने की जरूरत है । जब यह मंशा उजागर होगी तो उनके खंडित यथार्थ का असली चेहरा सामने आएगा । आज देश के बुद्धिजीवियों के सामने नक्सलमित्रों और नक्सलमित्रों की चालाकियों को सामने लाने की बड़ी चुनौती है । इसमें बहुत खतरे हैं । मार्क्सवाद के नाम पर अपनी दुकान चलानेवाले लोग बेहद शातिराना ढंग से आपको सांप्रदायिक, संघी आदि आदि करार देकर बौद्धिक वर्ग में अछूत बनाने की कोशिश करेंगे । अतीत में उन्होंने कई लोगों के साथ ऐसा किया भी है । लेकिन सिर्फ इस वजह से हिंसा की राजनीति को बढ़ावा देने उसको जायज ठहरानेवालों को बेनकाब करने से पीछे हटना अपने देश और उसकी एकता और अखंडता के साथ छल करना है । 

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