चंद दिनों पहले विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग ने पत्रिकाओं की एक सूची प्रकाशित की । इस सूची को प्रकाशित करने का उद्देश्य
यह बताया जा रहा है कि बेहतर शोध को बढ़ावा देने और शोध की स्तरीयता को बरकरार रखने
के लिए इन पत्र-पत्रिकाओं में ही रिसर्च पेपर प्रकाशित होने को अपेक्षित माना गया ।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने जिन अड़तीस हजार छह सौ तिरपन पत्रिकाओं की सूची प्रकाशित
की है उसमें हिंदी समेत किसी भारतीय भाषा में निकलने वाली पत्रिका नहीं है । यह पूरी
सूची मेडिकल, इंजीनियरिंग से लेकर समाज विज्ञान और साहित्य आदि सभी विषयों के शोधार्थियों
के लिए है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की इस सलाह-सूची में किसी भारतीय भाषा की पत्रिका
का नहीं होना जितना दुर्भाग्यपूर्ण है उससे ज्यादा दुखद ये है कि इसमें उन पत्रिकाओं
को शामिल कर लिया गया है जिनका स्तरीय होना ही संदिग्ध रहा है, वो अमेरिकी पत्रिकाओं
की नकल भर है। इसमें कंप्यूटर की एक ऐसी पत्रिका है जो यह बताती है कि कंप्यूटर के
पार्ट्स को जोड़कर कैसे मशीन तैयार की जा सकती है । इस तरह की कई पत्रिकाएं इस सूची
में मौजूद हैं । लापरवाही तो अलहदा मुद्दा है लेकिन इस सूची में हिंदी समेत भारतीय
भाषाओं की किसी भी पत्रिका का नहीं होना भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अफसरों या
सूची तैयार करनेवालों को अखरा नहीं, यह स्थिति परेशान करनेवाली है ।
विश्वविद्यालय अनुदान
आयोग देशभर के केंद्रीय विश्वविद्यालयों को धन तौ मुहैया करवाता ही है शोध या अन्य
तरह के कार्यों के लिए भी पैसे देता है । अब यह समझ से परे है कि शोध की गुणवत्ता सिर्फ
अंग्रेजी की पत्रिका में प्रकाशित होकर कैसे बरकरार रह सकती है । देश के सभी केंद्रीय
विश्वविद्यालयों को धन मुहैया करवानेवाले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को क्या यह नजर
नहीं आता है कि उन्हीं केंद्रीय विश्वविद्यालयों से सैकड़ों पत्रिकाएं निकल रही हैं
। अलग अलग विभागों की अलग अलग पत्रिकाएं, जिसके संपादक या तो वहां के प्रोफेसर हैं
या उस युनिवर्सिटी के कुलपति । उदाहरण के तौर पर अगर हम देखें तो महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय
हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से ‘बहुवचन’ और ‘पुस्तक वार्ता’ दो पत्रिकाएं निकलती हैं । बकायदा इन पत्रिकाओं के
लिए विश्वविद्यालय में संपादक नियुक्त हैं और पूरा का पूरा प्रकाशन विभाग चलता है ।
प्रकाशन अधिकारी से लेकर प्रकाशन और वितरण का काम देखने वाले अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति
की गई है । इन दोनों पत्रिकाओं के प्रधान संपादक विश्वविद्यालयके कुलपति खुद हैं, जो
अपने विषय के बड़े विद्वान माने जाते हैं । तो क्या ये माना जाए कि इतने बड़े विभाग
के होने और बाहर के विद्वानों से संपादन करवाने के बावजूद विश्वविद्यालय की ये दोनों
पत्रिकाएं स्तरीय नहीं हैं। इनमें छपकर किसी शोधार्थी को कोई फायदा नहीं होने वाला
है। कम से कम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पत्रिकाओं की सलाह सूची को देखकर तो यही
लगता है। अगर ऐसा है तो फिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को इन पत्रिकाओं पर होनेवाले
खर्चे के बारे में गंभीरता से सोचना होगा क्योंकि अगर पत्रिकाएं स्तरीय नहीं हैं तो
करदाताओं का पैसा इन पर क्यों खर्च किया जा रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को इन
खर्चों पर विचार करना चाहिए क्योंकि धन देने के अलावा उसके सही उपयोग हो, ये देखने
की जिम्मेदारी भी उसकी ही है ।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ
महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ही इस तरह की पत्रिकाएं निकल रही
है । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से भी ‘प्रज्ञा’ नाम की पत्रिका निकलती है । इस पत्रिका में भी विश्वविद्यालय
के संसाधनों का इस्तेमाल होता है । अगर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को इस पत्रिका में
भी स्तरीयता नहीं दिखाई देती है तो उसको काशी हिंदू विश्वविद्यालय को इस पत्रिका को
फौरन बंद करने का आदेश देना चाहिए या फिर उसकी स्तरीयता बढ़ाने के लिए विवविद्यालय
को कहना चाहिए। अब तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इनमें से कोई भी काम नहीं किया
है । तो फिर इस सूची के पीछे की वजह क्या है । देश में उच्च शिक्षा को ठीक से चलाने
के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्थाएं बनाई गई थी लेकिन अब वक्त आ गया है
कि इस तरह की संस्थाओं के क्रियाकलापों के बारे में एक बार फिर से विचार किया जाए।
जैसे वक्त बदलने के साथ हर संस्था को या व्यक्ति को बदलाव करना चाहिए उसी तरह से यूजीसी
के दायरे को भी सरकार को नए सिरे से तय करना चाहिए । घिसी पिटी लीक से आगे जाकर उच्च
शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही इस संस्था में आमूल चूल बदलाव करने की जरूरत है ।
विश्वविद्यालय अनुदान
आयोग को यह बताने की जरूरत है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में कई ऐसी पत्रिकाएं
निकल रही हैं जो अंग्रेजी में प्रकाशित कई पत्रिकाओं से बेहतर निकल रही हैं । उदाहरण
के तौर समाजशास्त्री अभय कुमार दूबे के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका ‘प्रतिमान’ को देखने की जरूरत
है । ‘प्रतिमान’ अपने हर अंक से स्तरीयता का नया प्रतिमान स्थापित कर रहा है । इसमें जिस
तरह के विषयों को लेकर लेख आदि प्रकाशित किए जाते हैं, लगता है उसके बारे में विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग के अफसरों को जानकारी नहीं है। यह जरूरी भी नहीं कि देश की हर भाषा में
निकलनेवाली पत्रिकाओ के बारे में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अफसरों को जानकारी हो
लेकिन जब आप स्तरीय पत्रिकाओं की सलाह-सूची प्रकाशित कर रहे हों तो हर भाषा के जानकार
को, विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाकर इस तरह की सूची जारी करनी चाहिए । ‘प्रतिमान’ के अलावा शायद विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग को लखनऊ से अखिलेश के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका ‘तद्भव’ की भी जानकारी नहीं
है क्योंकि अगर सूची तैयार करनेवालों को जानकारी होती तो यह संभव ही नहीं था कि ‘तद्भव’ इस सूची में अपना स्थान
नहीं बना पाती । ‘तद्भव’ के अबतक निकले अंकों में हिंदी की इतनी बेहतरीन सामग्री
छपी है जो अंग्रेजी के किसी भी जर्नल में छपी सामग्री को टक्कर दे सकती है । इसी तरह
के अगर हिंदी में ही प्रकाशित ‘नया ज्ञानोदय’ पर नजर डालें तो उसमें छपकर हिंदी के रचनाकार गौरव
मसहूस करते हैं । ‘नया ज्ञानोदय’ की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है । ज्यादा पीछे
नहीं जाएं तो प्रभाकर श्रोत्रिय, रवीन्द्र कालिया और अब लीलाधर मंडलोई के संपादन में
इस पत्रिका ने कई तरह के रचनात्मक प्रयोग किए जो अंग्रेजी में प्रकाशित होनेवाली पत्रिकाओं
में कम ही दिखाई देते हैं। राजेन्द्र यादव के संपादन में निलनेवाली पत्रिका ‘हंस’ अब संजय सहाय के संपादन
में निकल रही है जिसको भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सूची में स्थान नहीं दिया गया
है। यह सूची और लंबी हो सकती है,अगर इसमें अन्य भारतीय भाषाओं में निकलनेवाली पत्रिकाओं
को जोड़ लें तो। ऐसा होने पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को स्तरीयता के मानदंडों के
बारे मे पुनर्विचार करने की जरूरत होगी, बशर्ते कि उनमें से कोई इन पत्रिकाओं के बारे
में जानकारी जुटाने का उपक्रम करे । इस सूची के बाद एक दिक्कत ये भी हो रही है कि हिंदी
के प्रोफेसर किस भाषा में शोध करें ये भी उनकी समझ में नहीं आ रहा है क्योंकि उनको
शोध पत्र तो अंग्रेजी में लिखना होगा तभी उसको स्तरीय माना जाएगा । अब हिंदी के प्राध्यापकों
से अंग्रेजी में शोध पत्र लिखने की अपेक्षा करना तो अत्याचार जैसा ही है और वो भी सिर्फ
भाषा की वजह से इसको सहने के लिए मजबूर हैं ।
किसी सरकारी विभाग से
इस तरह की कोई सूची जारी होती है तो उसमें अगर इस तरह का भाषाई छूआछूत नजर आता है तो
वो संस्था को सवालों के कठघरे में तो खड़ा करता ही है, मंत्रालय की कार्यप्रणाली पर
भी सवाल खड़े करती है । एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं
को बढ़ावा देते नजर आते हैं, भारतीय जनता पार्टी के नेता भूपेन्द्र यादव अदालतों में
हिंदी औपर अन्य भारतीय भाषाओं में कामकाज के लिए निजी विधेयक पेश कर चुके हैं, मिजोरम
में हिंदी शिक्षकों की बदहाली को लेकर वहां के गैर हिंदी भाषी सांसद सदन में मामले
को उठा रहे हैं, हमारे देश के डेवलपर भारतीय भाषाओं में ऑपरेटिंग सिस्टम का विकास कर
अंग्रेजी के एकाधिकार को चुनौती दे रहे हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का
इस तरह की सूची प्रकाशित करना उनकी इस मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है जिसमें अंग्रेजी
से इतर कुछ स्तरीय दिखता नहीं है । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग का ये व्यवहार बिल्कुल अक्ष्म्य है और इस बार में मानव संसाधन मंत्रालय
को संज्ञान लेकर इस सूची को संशोधित करवाकर हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की स्तरीय
पत्रिकाओं का नाम शामिल करवाना चाहिए ।
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