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Saturday, April 22, 2017

टिकते नहीं विदेशी प्रकाशक

हिंदी का इतना बड़ा बाजार दिखाई देता है कि दुनिया भर के प्रकाशकों को ये बाजार हमेशा से लुभाता रहा है । दुनिया भर के प्रकाशक, खासकर अंग्रेजी के प्रकाशक, जब हिंदी भाषा के बाजार के आकार को देखते हैं तो उनको लगता है कि इस बाजार में उनकी भी भागीदारी होनी चाहिए। इस बाजार में प्रवेश और यहां के बाजार के मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी के उद्देश्य से नियमित अंतराल पर अंग्रेजी के प्रकाशक इस बाजार में दस्तक देते रहते हैं। पेंग्विन से लेकर हार्पर कालिंस तक ने इस बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। अभी हाल ही में इंगलैंड के एक प्रकाशक 'लोटस फीट पब्लिकेशन' ने भारत में अपना कारोबार शुरू करने का एलान किया है । लोटस फीट पब्लिकेशन ने हिंदी के बाजार में शुरुआत में गीत चतुर्वेदी के लघु उपन्यास के साथ साथ मनीषा कुलश्रेष्ठ, आकांक्षा पारे, किरण सिंह, अजय नावरिया और विवेक मिश्र की लंबी कहानियों का संग्रह छापने का एलान भी किया है । उनका दावा है कि वो अन्य भारतीय भाषाओं की चुनी हुई साहित्यक कृतियों का अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर विश्वस्तर पर उसका प्रकाशन और वितरण करेंगे । इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। यह हिंदी प्रकाशन जगत में स्पदंन पैदा कर सके ऐसी उम्मीद भी की जानी चाहिए। इसके पहले भी हिंदी प्रकाशन जगत में बहुत सारे विदेशी प्रकाशन गृहों के अलावा अंग्रेजी के प्रकाशकों और बड़ी पूंजी लेकर इस कारोबार में उतरनेवालों की एक फेहरिश्त है। उदाहरण के लिए अगर हम पेंग्विन और हार्पर कालिंस को ही देखें तो इन लोगों ने बहुत ताम-झाम के साथ हिंदी प्रकाशन जगत में प्रवेश का एलान किया था । बड़े बड़े साहित्यक नामों को अपने साथ जोड़ा भी था लेकिन विशाल हिंदी पाठक में उनकी वो स्वीकार्यता नहीं बन पाई जिसकी उम्मीद जताई गई थी। धीरे धीरे इन प्रकाशनों ने हिंदी से हाथ खींचना शुरू कर लिया बल्कि कहना ये चाहिए कि साहित्यक कृतियों के प्रकाशन को कम करना शुरू कर दिया । अंग्रेजी में हिट किताबों का हिंदी अनुवाद या फिर साहित्येतर पुस्तकों का प्रकाशन शुरू कर दिया। हार्पर कांलिस ने तो सुरेन्द्र मोहन पाठक के पूर्व प्रकाशित उपन्यासो को छापकर आकर्षक पैकेजिंग में बेचना शुरु कर दिया । इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वो कारोबारी हैं और कारोबार में मुनाफा ही उनका लक्ष्य होता है। सुरेन्द्र मोहन पाठक की कृतियों को नया पाठक भी मिला । प्रभात प्रकाशन के निदेशक पियूष कुमार नए प्रकाशनों का स्वागत करते हैं लेकिन जब उनसे पूछा गया कि अबतक इनकी सफलता का ट्रैक रिकॉर्ड इतना बढ़िया क्यों नहीं है। पियूष कहते हैं कि जब अमेरिका में बैठा प्रकाशन गृह का सीईओ ये देखता है कि पचास करोड़ हिंदी भाषी हैं तो वो फौरन अपनी रणनीति बनाता है भारत के अपने प्रतिनिधि को आदेश देता है कि एक साल में सौ किताबें छापनी चाहिए। उसको बताया जाता है कि सालभर में मुनाफा नहीं हो सकता है तो उसको लगता है कि साल दो साल तक निवेश करना चाहिए क्योंकि बाजार का आकार बहुत बड़ा है। जब दो साल में भी मुनाफा नहीं होता है तो वो अपना कारोबार समेटने लगता है।    
इसके अलावा पुस्तकों के चयन में भी इन प्रकाशन गृहों से चूक होती है जिसकी वजह से हिंदी के पाठक इनको नही मिल पाते हैं । होता यह है कि जो भी विदेशी प्रकाशक हिंदी के बाजार में उतरने की कोशिश करता है वो हिंदी के कुछ साहित्यकारों से संपर्क करता है। अब यह संपर्क किस आधार पर होता है या बगैर किसी आधार के होता है यह कहना मुश्किल है। जब संपर्क हो जाता है तो भविष्य की उनकी सारी योजनाएं उन्हीं कुछ साहित्यकारों की सलाह पर चलने लगता है। पूर्व में तो यह भी देखने में आया कि इन सलाहकार सहित्यकारों ने अपनी और अपने दोस्तों की पूर्व प्रकाशित किताबों को नए प्रकाशन गृह से छपवाने की सलाह दी और वो किताबें छपीं भी। नतीजा क्या हुआ कि हिंदी का पाठक नए प्रकाशन गृहों की किताबों को लेकर उत्साहित नहीं हो पाया क्योंकि जो उत्पाद नई साज सज्जा में नए प्रकाशन गृह से बाजार में भेजा गया उसको पाठक पहले ही पसंद या नापसंद कर चुके थे। छपी हुई रचनाओं के प्रकाशन का पुनर्प्रकाशन ने इस तरह के प्रकाशन गृहों को बहुत नुकसान पहुंचाया। अब लोटस फीट ने जिन कहानीकारों की लंबी कहानियों को छापने का एलान किया है उसके साथ यह नहीं बताया गया है कि वो नई रचनाएं होंगी या फिर उनकी पूर्व में प्रकाशित रचनाओं को प्रकाशित किया जाएगा। अगर नई रचनाओं को संकलन छपता है तो अच्छी बात है और पाठकों में उसको लेकर एक उत्सुकता होगी लेकिन अगर कहानीकारों के पूर्व प्रकाशित संकलनों से निकालकर नया संग्रह बनाकर बाजार में भेजा जाता है तो उसकी सफलता में संदेह है। लोटस फीट ने जिन भी रचनाकारों के नाम की घोषणा की है वो सभी अगर अपनी नई रचना देते हैं और वो एक जिल्द में प्रकाशित होती है तो इसमें सफल होने की गुंजाइश ज्यादा रहेगी।
दरअसल हिंदी प्रकाशन जगत का मन-मिजाज ही ऐसा है कि यहां बहुत ज्यादा फॉर्मूलों पर या मार्कंटिंग के टूल्स का इस्तेमाल कर सफल नहीं हुआ जा सकता है। हिंदी प्रकाशन जगत खासकर साहित्यक प्रकाशन की जो दुनिया है वो बहुत कुछ व्यक्तिगत संबंधों पर ही चलती है। लेखक-प्रकाशक के बीच रूठने मनाने का दौर चलता है, शिकवा शिकायतें भी होती हैं लेकिन वो दोनों ज्यादातर मामलों में एक दूसरे का साथ छोड़ते नहीं हैं। मुझे याद पड़ता है कि कई सालों पहले रे माधव और रेनबो पब्लिकेशंस के नाम से दो प्रकाशन संस्थान हिंदी में आए थे । लेखकों को उनकी रचनाओं के लिए अग्रिम भुगतान के तौर पर मोटी रकम दी गई थी लेकिन नतीजा क्या रहा। दोनों प्रकाशन गृह का आज कोई नामलेवा नहीं है। जुतने गाजे बाजे के साथ वो आए थे उतनी ही खामोशी के साथ हिंदी के बाजार से प्रस्थान कर गए। जिन लेखकों ने अग्रिम राशि लेकर अपनी किताबें इनको दी थीं वो बाद में अन्य प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाते देखे गए थे ताकि उनकी किताबें फिर से प्रकाशित हो सकें। कहा तो यहां तक गया कि छोटे अंतराल के लिए हिंदी प्रकाशन जगत में आए इन दो प्रकाशन संस्थानों ने इस कारोबार को फायदा की जगह नुकसान ही पहुंचाया। इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि पेशेवर तरीके से चलाने का दावा करने वाले ये लोग बाजार में बरकरार क्यों नहीं रह पाए।

इससे इतर अगर हम हिंदी के प्रकाशन कारोबार को देखें तो यहां अबतक पेशवर मैकेनिज्म बन नहीं पाया है। हिंदी के प्रकाशन में बिक्री के आंकड़ों को लेखकों से साझा करने की प्रवृत्ति रही नहीं है। साल में एक बार जब रॉयल्टी का बही खाता लेखकों को भेजा जाता है तब पता लगता है कि उसकी अमुक कृति की इतनी प्रति बिकीं। लेखकों के सामने प्रकाशकों पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है। इससे भी बुरी स्थिति यह है कि अब भी हिंदी के अस्सी फीसदी प्रकाशक अपने लेखकों के साथ किसी भी किताब के प्रकाशन को लेकर करार नहीं करते हैं। करार नहीं होने की स्थिति में लेखक और प्रकाशक दोनों के सामने अराजक होने का विकल्प रहता है। कई बार इस तरह की अप्रिय स्थितियां सामने आईं हैं। किसी का नाम लेना यहां उचित नहीं होगा क्योंकि हिंदी के लेखकों-पाठकों को इन अप्रिय प्रसंगों की जानकारी है। अच्छा जहां करार होता भी है वहां सभी प्रकाशकों के करारनामे अलग अलग हैं। इस करारनामे का कोई स्टैंडर्ड फॉर्मेट नहीं हैं।यह सब इस वजह से भी होता है कि प्रकाशकों पर नजर रखने की या उस कारोबार को रेगुलेट करने के लिए कोई एक संस्था नहीं है जो लेखक- प्रकाशक के बीच के मसलों पर अपनी राय दे सके, विवाद की स्थिति में उसको सुलझाने की कोशिश कर सके। प्रकाशकों को चाहिए कि वो एक ऐसी संस्था बनाएं जो कि इस तरह के मसलों पर नजर रख सकें और उस संस्था के फैसले सभी सदस्यों पर लागू हों । इस संस्था में प्रकाशकों के प्रतिनिधि के अलावा लेखकों की नुमाइंदगी भी हो और साथ ही साहित्य अकादमी जैसी संस्था के प्रतिनिधि भी इस संस्था में हों। हिंदी प्रकाशन जगत में पारदर्शिता लेखक और प्रकाशक दोनों के हित में है। अगर यह पारदर्शिता रहेगी तो बहुत संभव है कि विदेशों से जो प्रकाशक नए प्रकाशन गृह शुरू करने की योजना के साथ भारत आते हैं वो यहां पहले से स्थापित प्रकाशकों के कारोबार में पूंजी लगाने के बारे में सोचें। नए प्रकाशन गृहों के आने और जाने से तो यह स्थिति बेहतर होगी कि विदेशी पूंजी का निवेश स्थानीय प्रकाशकों के कारोबार मे हो। इससे इस सेक्टर को मजबूती मिलेगी, संभव है लेखकों को ज्यादा पैसे मिलें और प्रकाशकों के मुनाफे में बढ़ोतरी हो।          

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