हिंदी साहित्य में जब से यथार्थवाद का जोर बढ़ा था तो उसके बाद धीरे धीरे विधाओं
का दायरा भी सिकुड़ने लगा था । पत्र साहित्य, रेखाचित्र, यात्रा वृत्तांत, रिपोर्ताज
आदि कम लिखे जाने लगे । पत्र साहित्य को तो तकनीक ने भी कमजोर किया और उसको लगभग खत्म
ही कर डाला । यह दौर काफी लंबे समय तक चला । साहित्य में कविता, कहानी, उपन्यास और
आलोचना और कुछ हद तक नाटक ये विधा ही केंद्र में रहे । जाहिर बात है कि कवि, कहानीकार,
उपन्यासकार, आलोचक और कुछ हद तक नाटककार ही साहित्य के केंद्र में आ गए । यथार्थवाद
के दौर में सिनेमा पर लेखन कम हुआ बल्कि यों कहें कि सिनेमा पर लिखनेवालों को बुर्जुआ
प्रवृत्ति के पोषक के तौर पर प्रचारित कर हेय दृष्टि से देखा गया । उनकी कृतियों का
मूल्यांकन करने के बजाए उसको बगैर पढ़े लिखे ही खारिज कर दिया जाता रहा । इसका बड़ा
नुकसान यह हुआ कि हिंदी सिनेमा की इतनी दिलचस्प दुनिया पर गंभीरता से लंबे समय तक लेखन
ही नहीं हुआ । हिंदी सिनेमा की उन शख्सियतों पर गंभीर किताबें नहीं आईं जिन्होंने सौ
साल से ज्यादा की भारतीय फिल्मों की यात्रा में अपना बेहतरीन योगदान दिया था। काफी
लंबे समय तक चले इस दौर के बाद पिछले कुछ वर्षों से उसमें बदलाव लक्षित किया जाने लगा
। साहित्य के दायरे का विस्तार हुआ और कई अन्य तरह का लेखन भी साहित्य के केंद्र में
आया । शास्त्रीय तरीके के विधाओं के कोष्टक को कई लेखकों ने विस्तृत किया । सिनेमा,
खेल आदि पर लेखन शुरु हुआ । परंतु अब भी कई क्षेत्र हैं जिनपर लिखा जाना शेष है । हिंदी
में साइंस फिक्शन की तरफ अभी भी लेखकों की ज्यादा रुति दिखाई नहीं देती है ।
साहित्य को लेकर हिंदी में लंबे समय से कोई विमर्श भी नहीं हुआ । इसके स्वरूप और
प्रकृति को लेकर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । प्राचीन भारतीय विद्वानों ने
और पश्चिम के आलोचकों, लेखकों ने भी उसपर लंबे समय तक विचार किया था । उन्होनें साहित्य
क्या है, साहित्य की प्रकृति क्या हो, कविता क्या है, कहानी कैसी हो, कहानी और उपन्यास
में क्या अंतर होना चाहिए, उपन्यास का महाकाव्यत्व क्या हो, साहित्य का व्याकरण क्या
हो पर अपनी राय रखी थी । समकालीनों से संवाद किया और अपने पूर्ववर्ती लेखकों के विचारों
से मुठभेड़ किया था । बेलिंस्की जैसे विद्वान ने तो साहित्य क्या है, इसको केंद्र में
रखकर एक मुकम्मल लेख लिखा ही था । गुरवर रवीन्द्रनाथ टौगोर से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी
तक ने साहित्य की सामग्री और साहित्य का व्याकरण जैसे लेख लिखे । पहले तो किसी विधा
विशेष पर उपमहाद्वीप के लेखकों को इकट्ठा कर मंथन होता था । 1963 के आरंभ में लेनिनग्राद
में नेवा नदी के किनारे यूरोपीय लेखकों का एक सम्मेलन हुआ था जिसमें अनेक भाषाओं के
लेखकों और आलोचकों ने इसमें हिस्सा लिया था ।कई दिनों तक चले इस सम्मेलन में सिर्फ
उपन्यास विधा पर बातचीत हुई थी जिसमें कई समकालीन उपन्यासों की प्रवृत्तियों और उपन्यास
विधा के भविष्य पर मंथन हुआ था । हिंदी साहित्य में यथार्थवाद के दौर में एक खास विधा
पर विचार करने के लिए सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों का समागम शायद ही हुआ हो । अब भी
इसकी आवश्यकता है ।
अब स्थितियां कुछ बदलने लगी हैं । अब विधाओं का विस्तार हुआ है बल्कि हम कह सकते
हैं कि हिंदी में साहित्य ने अपना विस्तार किया है । तमाम बौद्धिक गतिविधियां जो लेखक
ने कलमबद्ध किया है उसको साहित्य माना जाने लगा है । पहले भी इस तरह की मान्यता थी
लेकिन अब उस मान्यता को पहचान के साथ-साथ स्वीकार्यता भी मिलने लगी है । अंग्रेजी में
साहित्य को लिटरेचर कहा जाता है, लिटरेचर का संबंध लेटर यानि अक्षर से है और बहुधा
अक्षर में व्यक्त किए गए भावों को साहित्य माने जाने की अवधारणा भी दी गई । इसी के
अंतर्गत कृषि साहित्य से लेकर अश्लील साहित्य तक का वर्गीकरण किया गया था । हिंदी में
यह अवधारणा बहुत चल नहीं पाई और मुख्य विधाओं को ही साहित्य माना जाता रहा । उसमें
से कई युवा लेखकों ने प्रयोग किए । कई युवा साहित्यकारों ने पहले किसी अन्य विधा के
लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनाई और फिर उन्होंने अपने लिए नया रास्ता चुना और अब उनकी
पहचान उस नए रास्ते की वजह से हो रही है ।
उदाहरण के तौर पर देखें तो यतीन्द्र मिश्र का आगमन साहित्य में एक कवि के तौर पर
हुआ था और उन्हें कविता का प्रतिष्ठित ‘भारत भूषण अग्रवाल सम्मान’ भी मिला था लेकिन अब उनको साहित्य में कवि के रूप में कम और संगीत अध्येता के रूप
में ज्यादा जाना जाता है । उन्होंने ‘अक्का महादेवी’ से लेकर ‘लता मंगेशकर’ पर गंभीरता से लिखकर अपनी तो नई पहचान स्थापित की ही
साहित्य का दायरा भी बढ़ाया । इसी तरह से एक दूसरा नाम अनु सिंह चौधरी का है । अनु
ने पहले अपनी पहचान एक कहानीकार के रूप में बनाई । उनका कहानी संग्रह ‘नीला स्कार्फ’ काफी चर्चित रहा और कहानी की दुनिया में उनको गंभीरता से लिया जाने लगा लेकिन जब
से उनकी किताब ‘मम्मा की डायरी’ प्रकाशित हई तो उनकी कहानीकार वाली पहचान नेपथ्य में
चली गईं और एक स्त्री के कदम कदम पर संघर्ष को सामने लाने वाली लेखिका के तौर पर पहचाना
जाने लगा । इसी तरह से अगर देखें तो रत्नेश्वर सिंह ने पहले अपनी पहचान एक कहानीकार
के तौर पर स्थापित की लेकिन बाद में ‘जीत का जादू’ जैसी बेहतरीन किताब लिखकर मोटिवेशनल गुरू के तौर पर
खुद को स्थापित किया । रत्नेश्वर को उनकी कहानियों और मीडिया पर लिखी दर्जनों किताब
से ज्यादा पहचान ‘जीत का जादू’ ने दिलाई । अब रत्नेश्वर का नया उपन्यास ‘रेखना मेरी जान’ प्रकाशित होने वाली है जिसके लिए प्रकाशक ने उनके साथ पौने दो
करोड़ रुपए का कांट्रैक्ट किया है । यह सूची काफी लंबी हो सकती है । प्रभात रंजन की
पहचान भी पहले कहानीकार के तौर पर हुई । कहानी के लिए उनको पुरस्कार आदि भी मिले लेकिन अब वो मुजफ्फरपुर की
बाइयों पर लिखी अपनी किताब ‘कोठागोई’ की वजह से जाने जाते हैं । इसी सूची में एक नाम शाजी जमां का
भी है । पत्रकार शाजी जमां ने एक उपन्यासकार के तौर पर खुद को स्थापित किया । उनके
दो उपन्यास ‘प्रेम गली अति सांकरी’ और ‘जिस्म जिस्म के लोग’ खूब चर्चित रहे थे । अब अकबर पर ऐतिहासिक उपन्यास लिखकर अपनी एक अलग पहचान कायम
की । साहित्य का दायरा तो बढाया ही । ये वो लोग हैं जिन्होंने विधाओं की चौहद्दी को
तोड़ा ।
एक अलग तरह के लेखन से अपनी पहचान तो नीलिमा चौहान ने भी बनाई । उनकी किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ ने साहित्य की दुनिया को झकझोरा जरूर । यह पुस्तक किसी शास्त्रीय
विधा के दायरे में नहीं आती है लेकिन इसने अपनी भाषा से अपने कथ्य से साहित्य की श्लील
कही जानेवाली सीमा रेखा का अतिक्रमण किया । नीलिमा की इस बात के लिए खूब आलोचना भी
हो रही है कि उसने अश्लील भाषा का इस्तेमाल किया । इस किताब के प्रकाशक ‘वाणी प्रकाशन’ की भी कुछ स्थापित शास्त्रीय किस्म के लेखकों ने लानत मलामत
की । उनका कहना था कि प्रकाशक ने इस किताब को प्रकाशित कर फूहड़ता को बढ़ावा दिया है
और साहित्यक प्रकाशनों की अपनी विरासत को झटका दिया है । इन लोगों से मेरी विनम्र गुजारिश
है कि वो ई एल जेम्स की दो हजार ग्यारह में प्रकशित कृति ‘फिफ्टी शेड्स’ के बारे में जानकारी इकट्ठा कर लें । पूरी दुनिया में इस ट्राएलॉजी को प्रकाशित
करनेवाले प्रकाशकों की सूची पर नजर डालेंगे तो रैंडम हाउस से लेकर एरो बुक्स जैसे प्रतिठित
प्रकाशकों का नाम नजर आएंगें । दरअसल जो लोग किसी भी कृति पर अश्लीलता और फूहड़ता का
आरोप लगाते हैं उनसे बदलते वक्त को पहचानने में चूक होती है या फिर किसी खास एजेंडे
के तहत इस तरह की बहस उठाई जाती है । साहित्य में शुचिता का सवाल बहुत पुराना है ।
एक जमाने में लेडी चैटरलीज़ लवर को लेकर भी इस तरह की बातें हुई थीं और उसपर पाबंदी
आदि लगाने तक के कदम उठे थे लेकिन आज वो क्लासिक माना जाता है । किसी भी कृति को अश्लील
कहकर खारिज कर देना दरअसल पलायनवादी प्रवृत्ति है, प्रयोगों की नवीनता से टकराने से
ज्यादा आग्रह इस बात का होता है कि उसका तमाशा बना दिया जाए । उपरोक्त बातों का यह
अर्थ कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि पतनशील पत्नियों के नोट्स, ई एल जेम्स की फिफ्टी
शेड्स या फिर लेडी चैटरलीज़ लवर जैसी कृति है । हां इतनी अपेक्षा अवश्य है कि किसी
भी कृति का मूल्यांकन बगैर पूर्वग्रह के हो । वक्त बदल रहा है इसको पकड़ने की जरूरत
है । कोंस्तानिन फेदिन ने कहा था- यथार्थ की सामग्री लगातार बदलती जा रही है अत: यह स्वाभाविक है कि
कृतियों में उसकी अभिव्यक्ति भी परिवर्तित होगी। रूप भी रेडीमेड पोशाक नहीं है । लेखक
का इसके संबंध में दृष्टिकोण भीइस सामग्री से पैदा होता है जो उसने जीवन से ग्रहण किया
है ।
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