हिंदी
की विपुल साहित्यक विरासत पर अगर नजर डालें तो इस वक्त उसको संरक्षित करने की बेहद
आवश्कता दिखाई देती है । संरक्षण के साथ-साथ जरूरत इस बात की भी है कि हिंदी साहित्य
को समृद्ध करनेवाली रचनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का काम भी किया जाए। आज पूरे देश
में हिंदी के पक्ष-विपक्ष में बयानबाजी हो रही है लेकिन अगर हिंदी के लिए कुछ ठोस करना
है तो उसकी विरासत को समकालीन बनाने का यत्न किया जाना बेहद जरूरी है। हिंदी के व्याकरण
को लेकर बहुत सारी बातें होती हैं, हिंदी में शब्दों की युग्म-रचना को लेकर भी बहसें
होती रहती हैं । इन सारे प्रश्नों का जिस किताब में उत्तर है वह पुस्तक अब लगभग अप्राप्य
है। पंडित किशोरीदास वाजपेयी की किताब ‘हिन्दी शब्दानुशासन’ अहम है.,लेकिन वो अब मिलती नहीं है। अगर बहुत जतन के
बाद आप इस पुस्तक तक पहुंच भी गए तो इसकी छपाई के अक्षर काफी पुराने हैं, लिहाजा आपको
पढ़ने में कठिनाई होगी। नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से प्रकाशित इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशन
और पाठकों तक इसकी जानकारी पहुंचाने की कोशिश की जानी चाहिए। इसी तरह से अगर आप हमारे
वेदों को देखें तो वो उपलब्ध तो हैं लेकिन उनको समकालीन बनाने की आवश्यकता है। प्रस्तुतिकरण
में समकालीन, छपाई में बेहतर अक्षरों का प्रयोग और इन सबसे अलग जो हिंदी में इसका अनुवाद
छपा है उसको फिर से देखकर आज के जमाने की हिंदी की अनुसार करना होगा ताकि हमारी आज
की युवा पीढ़ी उसको पढ़ समझ सके।
इसी
तरह से अगर हम विचार करें तो हमारे कई ऐसे कवि-लेखक हैं जिनके बारे में, जिनकी रचनाओं
के बारे में युवा पीढ़ी को बताने के लिए काम करना होगा। अपनी परंपरा और विरासत तो सहेजकर
ही उसकी मजबूत जमीन पर बुलंद इमारत खड़ी की जा सकती है।
अभी
हाल ही में केंद्रीय हिंदी निदेशालय के सहयोग से अयोध्या में जगन्नाथदास रत्नाकर पर
दो दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई। इस गोष्ठी में जगन्नाथदास रत्नाकर और हिंदी साहित्य
में उनके योगदान पर गहन चर्चा हुई। जगन्नाथदास रत्नाकर को ज्यादातर लोग रीतिकालीन कवि
और उद्धव शतक के रचयिता के तौर पर जानते हैं, परंतु उनका रचना संसार काफी व्यापक है।
कहा जाता है कि उन्होंने जयपुर राजघराने से लेकर बिहारी सतसई का भाष्य प्रस्तुत किया।
कुछ लोगों का तो ये भी मानना है कि सूर सागर के संपादन और संकलन का बड़ा हिस्सा उन्होंने
ही किया था । उद्धव शतक के रचयिता कविवर जगन्नाथदास रत्नाकर की कर्मभूमि अयोध्या है।
वो करीब तीन दशकों तक अयोध्या में रहे और वहीं रहकर उन्होंने उद्धव शतक, गंगालहरी, गंगावतरण, बिहारी सतसई
की टीका जैसे कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की।अच्छी बात यह रही कि इस गोष्ठी में
केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने रत्नाकर के बिखरे साहित्य को सहेजने एवं पुनर्प्रकाशन का
ऐलान किया । जगन्नाथदास रत्नाकर के बारे में यह तथ्य अभी तक सामने है कि वो आजादी पूर्व
उन्नीस सौ दो में अयोध्या के राजा के निजी सचिव होकर आए थे और वहां रहते हुअ उन्होंने
साहित्य के लिए बेहद अहम कार्य किया। उनकी रचनाएं काल की सीमाओ को तोड़ते हुए आज भीअपने
बूते पर जिंदा हैं। जरूरत उसको विशाल हिंदी पाठक वर्ग तक पहुंचाने की है ।
टी एस
इलियट ने कहा था- ‘ऐतिहासिक बोध उन कवियों के लिए, जो अपनी उम्र के पच्चीस
वर्ष बाद भी कवि बने रहना चाहते हैं, लभग अनिवार्य है। इस ऐतिहासिक बोध का मतलब है
एक परप्रेक्ष्य, जो अतीत की अतीतता से नहीं, उसकी वर्तमानता से भी संबद्ध हो। ऐतिहासिक
बोध व्यक्ति को इसके लिए बाध्य करता है कि वो अपनी अस्थियों में सिर्फ अपनी पीढ़ी को
लेकर ही ना लिखे, बल्कि इस अनुभूति के साथ लिखे कि होमर से लेकर आजतक के यूरोप का संपूर्ण
साहित्य उसमें अंतर्निहित है। इसमें उसके अपने देश के साहित्य का समांतर अस्तित्व होगा
और वह समांतर क्रम में ही रचना करेगा।‘ कवि जग्गनाथदास रत्नाकर
में ये गुण है।
हिंदी
में लंबे समय तक परंपरा को तोड़ने फोड़ने का काम किया गया और इस तोड़ फोड़ का नुकसान
यह हुआ कि हम अपनी विरासत से दूर होते चले गए। अपरंपरा का शोर मचानेवाले तो समय के
साथ साहित्य में हाशिए पर चले गए लेकिन जबतक शोर मचाते रहे तबतक साहित्य का बहुत नुकसान
कर दिया। कुछ कवियों को आगे बढ़ा दिया तो कुछ के विचारों में कमजोरी पकड़कर उसके बरख्श
किसी और कवि को खड़ा करने की कोशिश की गई। मिसाल के तौर पर जिस तरह से आलोचकों में
गोस्वामी तुलसीदास और कबीर को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ दिखाई देती है उसको देखा
जा सकता है। कबीर को क्रांतिकारी और तुलसी को रूढ़िवादी करार देकर सालों तक तुलसी के
कवि रूप पर विचार नहीं किया गया या कह सकते हैं कि तुलसी को सायास हाशिए पर डालने की
कोशिश की गई । तुलसी को वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थक और कबीर को रूढ़ियों पर प्रहार
करनेवाला रचनाकार बताया जाता रहा। यह तो तुलसी के कवित्व की ताकत थी कि जिसके बूते
पर वो पाठकों के मानस पर पीढ़ी दर पीढ़ी बने रहे। सवाल तो उसपर भी खड़े होने चाहिए
कि कविता की कसौटी कवि का विचार होना चाहिए या उसकी विचारधारा? हमारा तो मानना है कि कविता को कविता की प्रचलित कसौटी पर ही कसा जाना चाहिए।
कविता को विचार और विचारधारा की कसौटी पर कसना कवि के साथ अन्याय करने जैसा है। हिंदी
में विचारधारा के आलोचकों ने जब कवियों का विचार और धारा के आधार पर मूल्यांकन शुरू
किया तो इस तरह की गड़बड़ियां होने लगीं। जगन्नाथदास रत्नाकर से लेकर अन्य रीतिकालीनऔर
भक्तिकालीन कवि हाशिए पर धकेले जाने लगे। अब वक्त आ गया है कि एक बार फिर से हमअपने
पूर्ववर्ती रचनाकारों पर गंभीरता से बगैर किसी वैचारिक पूर्वग्रह के विचार करें और
मूल्यांकन का आधार साहित्यक हो। सरकारें भी हिंदी का बहुत शोर मचा रही हैं लेकि अगर
वो सचमुच हिंदी को लेकर गंभीर हैं तो उनको प्रतीकात्मकता छोड़कर ठोस कार्य प्रारंभ
करना होगा। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के अलावा भी भारत सरकार के कई संस्थान हैं जो इस
तरह के काम को अपने हाथ में ले सकते हैं। कई संस्थाएं तो पुरानी कृतियों के संरक्षण
और संवर्धन के लिए हैं। इस बिखने हुए संस्थामों को साथ आकर, गंभीरता से, लोगों को चिन्हित
कर इस काम को करवाना होगा।
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