हाल के दिनों में दो
खबरें ऐसे आईं जिसको लेकर भाषा के पैरोकारों की पेशानी पर बल पड़ने लगे। पहली खबर तो
ये आई कि सीबीएसई के स्कूलों में दसवीं तक हिंदी की शिक्षा को अनिवार्य किया जा रहा
है और दूसरी खबर ये आई कि हिंदी पर बनाई गई संसदीय समिति की कुछ सिफारिशों को राष्ट्रपति
ने मंजूरी दे दी है । इन सिफारिशों में ये भी शामिल था कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री
और अन्य मंत्री अपना भाषण हिंदी में देंगे, जिसको भी मंजूरी मिली, लेकिन शर्त के साथ।
शर्त ये इनको हिंदी आती हो और वो इस भाषा में सहज हों। सीबीएसई ने हिंदी को अनिवार्य
करने की खबरों से इंकार कर दिया और कहा कि भाषा को लेकर जो फॉर्मूला चल रहा है वही
जारी रहेगा। लेकिन संसदीय समिति की सिफारिशों के खिलाफ एक माहौल बनाने की कोशिश की
जाने लगी है। यह सत्य और तथ्य है कि भारत के लगभग साठ करोड़ लोग हिंदी बोलते और समझते
हैं। यह भी माना जाने लगा है कि हिंदी एक तरीके से पूरे देश में संपर्क भाषा के तौर
पर विकसित हो चुकी है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कोलकाता तक सबलोग हिंदी
समझते हैं। तो फिर हिंदी का विरोध क्यों। इसका उत्तर एक शब्द का है, राजनीति।
अपनी राजनीतिक रोटियां
सेंकने के लिए गैर हिंदी प्रदेश के कुछ नेता इसको मुद्दा बनाकर जनता की भावनाएं भड़काना
चाहते हैं। इन भावनाओं को भड़काने के पीछे भाषा से कुछ लेना देना हो ऐसा प्रतीत नहीं
होता है। बल्कि ये संकेत मिलते हैं कि इसके पीछे वोटबैंक की राजनीति है। डीएमके नेता
एम के स्टालिन ने पिछले चुनाव के वक्त कई इलाकों में हिंदी में अपनी पार्टी के पोस्टर
लगवाए थे। अब संसदीय समिति की सिफारिश के बाद वो भी हिंदी के विरोध का झंडा लेकर खड़े
हो गए हैं । इसके पहले भी वो हाईवे पर बोर्ड में हिंदी में शहरों के नाम लिखवाने को
मुद्दा बनाने की कोशिश में लगे थे जो परवान नहीं चढ़ सकी। इन विरोधों के बीच केंद्र
की तरफ से बार-बार ये कहा गया है कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी ।
दरअसल हिंदी को सरकारी
नोटिफिकेशन आदि से सर्वामान्य भाषा के तौर पर स्थापित किया भी नहीं जा सकता है। इसके
लिए हिंदी अपना रास्ता खुद बना रही है। हिंदी के विकास में दो सबसे बड़ी बाधा है पहली
तो अंग्रेजी के पैरोकार जो खुद औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहे हैं। उनको लगता है कि
हिंदी का अगर दबदबा कायम हुआ तो उनकी धमक कमजोर हो जाएगी । इसके लिए वो लगातार प्रयत्न
करते हैं कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं एक दूसरे से झगड़ती रहें। जबकि हिंदी और अन्य
भारतीय भाषाओं में किसी तरह का कोई झगड़ा है नहीं। अन्य भारतीय भाषाओं की कृतियों का
जितना अनुवाद हिंदी में होता है उतना किसी अन्य भाषा में नहीं होता है। हिंदी समेत
अन्य भारतीय भाषाओं को यह समझना होगा कि हित इसी में हैं कि वो साथ साथ चलें। कहा भी
गया है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं सहोदर हैं तो फिर झगड़ा कैसा और क्यों? हिंदी के विकास में दूसरी बाधा उसका अपना तंत्र है।
हिंदी को सर्वमान्य बनाने के लिए भाषा में नए शब्दों के गढ़ने की जरूरत है। कई बार
हिंदी में शब्दों की कमी नजर आती है और उसके लिए अंग्रेजी के वैकल्पिक शब्द का प्रयोग
करना पड़ता है । जैसे हिंदी में रोमांस, डेट आदि के लिए शब्द गढ़ने की जरूरत है । हिंदी
की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए और युवाओं के बीच पैठ बनाने के लिए एक तरह का खुलापन
भी लाना होगा। अतिशुद्धतावाद से बचना होगा और अगर अन्य भाषा के शब्द सहजता से आ रहे
हैं तो उसका स्वागत भी करना होगा ।
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