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Saturday, April 1, 2017

संवाद से बढ़ेगा दायरा

आज हिंदी में इस बात को लेकर बहुधा सवाल खड़े होते हैं कि कोई कालजयी कृति क्यों सामने नहीं रही । कालजयी ना भी तो अपने समय को झकझोर देनेवाली कहानी या उपन्यास क्यों नहीं लिखे जा रहे हैं । क्या वजह है कि असगर वजाहत की कैसी आई लगाई चित्रा मुद्गल की आवां, भगवानदास मोरवाल का काला पहाड़ जैसे उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं । पिछले दो तीन सालों में कुछ उपन्यास आए लेकिन वो सामान्य उपन्यासों की तरह छपे, बिके, कुछ चर्चा हुई, कुछ मित्रों ने लिख दिया लेकिन पाठकों के बीच ललक जैसी बात नहीं दिखाई दी । अल्पना मिश्र का अंधियारे तलछट में चमकाहो, जयश्री राय का दर्दजा हो, प्रियदर्शन का जिंदगी लाइव हो, पंकज सुबीर का अकाल में उत्सव हो, भगवानदास मोरवाल का नरक मसीहा हो या फिर अखिलेश का उपन्यास निर्वासन हो, इन सबकी चर्चा हुई, पाठकों ने पसंद भी किया लेकिन उस ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाई जिसतक आवां, चाक या काला पहाड़ पहुंचे थे । इसकी वजह क्या रही होगी । यह सवाल बार-बार कई मंचों पर उठाते रहे हैं, विरोध और प्रतिरोध के बावजूद । आज की आत्ममुग्ध पीढ़ी के लेखक इस बात को मानने को तैयार नहीं है लेकिन इस प्रश्न का उत्तर ही उनको बेहतर लिखने की राह पर ले जा सकते है ।
क्या लेखकों का अनुभव संसार सिकुड़ता जा रहा है या फिर लेखक पाठकों की बदलती रुचि को नहीं पकड़ पा रहे हैं । इस बारे में कुछ भी प्रामाणिकता से कहना मुश्किल है लेकिन एक चीज जो साफ तौर पर लक्षित की जा सकती है वह है लेखकों के बारे में, उनकी रचना प्रक्रिया के बारे में पाठकों को जानकारी नहीं होना । पहले पत्र-पत्रिकाओं में लेखकों की रचना प्रक्रिया नियमित रूप से छपा करती थी । इसका फायदा यह होता था कि पाठकों को यह पता चलता था कि किसी भी रचना को लेकर लेखक के मन में क्या चल रहा है । उसका मानसिक संघर्ष कैसा था या उसको किसी उपन्यास या कहानी को लिखने में किस प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था । इसका फायदा यह होता था कि पाठकों के मन में एक उत्सकुता का भाव तो उत्पन्न होता ही था, लेखक के संघर्ष में उसको खुद का संघर्ष भी दिखता था । कहना ना होगा कि इस प्रक्रिया के सामने आने से लेखकों और पाठकों के बीच एक तादात्मय स्थापित होता था । इस संबंध से रचना को वृहत्तर पाठक वर्ग में स्वीकृति मिलती थी । अब क्या हो रहा है कि लेखकों की रचनाएं तो आ रही हैं पर पाठकों को उनकी रचना प्रक्रिया को जानने का अवसर नहीं मिल रहा है । पत्र-पत्रिकाओं में लेखकों की रचना प्रक्रिया पर बात नहीं होती । ना ही कोई ऐसा कार्यक्रम होता है जिसमें लेखकों से उनकी रचना प्रक्रिया पर बात हो सके । इस वक्त दर्जनों लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं जिसमें हिंदी के लेखकों को बुलाया जाता है, उनसे बातचीत की जाती है लेकिन बहुधा उनकी कृतियों पर बात की जाती है या फिर साहित्य की उन प्रवृत्तियों पर बात की जाती है जिनमें विवाद की गुंजाइश नजर आती है ।  मुझे याद आता है  जब चंद सालों पहले भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत या मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास अल्मा कबूतरी छपा था तो लेखकों ने बताया था कि कैसे वो उन समुदायों के लोगों के बीच गए उनसे बात की उनकी जिंदगी को करीब से जिया । इसका फायदा यह हुआ कि पाठकों को उपन्यासों में एक प्रामाणिकता का बोध हुआ जिसने कालांतर में इन कृतियों को बेहतक बनाने में या उनको स्थापित करने में मदद की । अब तो ये हो रहा है कि कल्पना के आधार पर देश विदेश की कहानियां लिखी जा रही हैं । इसमें बुराई नहीं है लेकिन काल्पनिकता कभी भी प्रामाणिकता का स्थान नहीं ले सकती है ।  
तकनीक के विस्तार ने, इंटरनेट के फैलते घनत्व ने लेखकों को पाठकों तक आसानी से पहुंचने का एक मंच दिया है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी के लेखक इस सुविधा का लाभ उठाएं । फेसबुक पर हाल के दिनों में जिस तरह से वीडियो पोस्ट करने की या लाइव करने की सहूलियत मिली है उसका लाभ हिंदी के लेखकों को उठाना चाहिए । इसमें ज्यादा कुछ तामझाम की जरूरत भी नहीं पड़ती है । आप कैमरे वाले फोन और बेहतर इंटरनेट कनेक्शन के साथ बैठ जाएं और फेसबुक लाइव के जरिए अपने पाठकों से रूबरू हों, उनके सवालों का जवाब दें, अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करें और अपनी कृति को लेकर उत्सुकता का वातवरण बनाए । विदेशों में लेखक इस तरह संवाद कर रहे हैं । कई बार खुद तो कई बार किसी सेलिब्रिटी के साथ बैठकर अपनी कृतियों पर बात करते हैं । यह भी देखा गया है कि विदेशों के लेखक पाठकों के साथ अपनी कृति को लेकर सवाल जवाब भी करते हैं । फेसबुक लाइव के दौरान सवाल जवाब का विकल्प भी है । फेसबुक लाइक्स से आगे जहां और भी है, इस बात को हिंदी के लेखकों को समझना होगा और उसको अपने और साहित्य के हक में इस्तेमाल करना होगा । पाठकों से संवाद का यह इकलौता मंच नहीं है, ट्विटर, व्हाट्स एप जैसे मंच का इस्तेमाल भी लेखकों को पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए करना चाहिए । हैरी पॉटर सिरीज की मशहूर लेखिका जे के रॉलिंग तो अपनी नई कृति के प्रकाशन के पहले अपने पाठकों और प्रशंसकों के साथ संवाद ही नहीं करती है बल्कि कोई सवाल उछालकर अपने प्रशंसकों को उकसाती भी है । कई बार उसका जवाब देकर तो कई बार उसको रीट्वीट करके ।
अब ये सवाल पूछा जा सकता है कि इन सबको अपनाकर पाठकों को झकझोर देनेवाली कहानियां या उपन्यास कैसे लिखे जा सकते हैं । सवाल बाजिब है लेकिन जब पाठकों को किसी कहानी के पीछे की कहानी पता चलेगी या फिर लेखक के उन अनुभवों का अंदाजा लगेगा जिससे प्रभावित होकर उसने कोई रचना लिखी है तो पाठक उसको दूसरे तरीके से देखगें । रचना की प्रक्रिया को जाने बगैर कोई कृति बहुत सपाट लग सकती है लेकिन अगर उसको जान लेंगे और समग्रता में उसको देखेंगे तो, संभव है उसके कई अर्थ उद्घाटित हों । सपाट रचना के अर्थ उद्घाटित होते ही उसके बेहतर रचना के कोष्टक में शामिल होने की संभावना बढ़ जाती है । 

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