Translate

Monday, April 24, 2017

किसानों की समस्या का हल क्या?


इन दिनों एक बार फिर से देश के किसान और उनकी समस्याएं सुर्खियों में हैं । आमतौर पर किसान को चुनावों के वक्त तवज्जो मिलती है लेकिन इन दिनों हालात ऐसे बन रहे हैं कि चुनाव के वादों के पूरा करने को लेकर किसान की चर्चा है । उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने मंझोले और सीमांत किसानों की कर्ज माफी का एलान कर दिया है। लेकिन उत्तर प्रदेश से दूर तमिलनाडू के किसान अपनी बदहाली को लेकर नग्न होकर तमिलनाडू में प्रदर्शन कर रहे हैं, कहीं कलाई काटकर अपना विरोध और गुस्सा दिखा रहे हैं तो हाल ही में दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर तक किसानों का प्रदर्शन पहुंच गया। मीडिया में किसानों का आंदोलन उतनी बड़ी खबर नहीं बन पाती जब तक कि कोई चौकानेवाली घटना ना हो । किसानों की बढ़ती आत्महत्या को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक की सरकारों की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो रहे हैं ।दरअसल अगर हम देखें तो आजादी के बाद से ही हमारा देश कृषि प्रधान देश रहा है लेकिन किसानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा। चुनाव के वक्त किसानों के भावनात्मक मुद्दों को उठाकर पार्टियां बोट बटोरती रही। किसानों का भी राजनीतिक इस्तेमाल उसी तरह से हुआ जिस तरह से अल्पसंख्यकों का हुआ । अल्पसंख्यकों के दिलों में डर पैदा कर, उनके वोट बटोरनेवाली पार्टियों ने कभी इसकी बेहतर तालीम से लेकर बेहतर रोजगार तक के बारे में ध्यान नहीं दिया, वादे बहुत किए गए लेकिन पूरे नहीं हुए। एक तरफ तो अल्पसंख्यकों को अपनी राजनीतिक जागीर समझनेवाली पार्टियों ने उनको खुश करने के लिए इतनी बातें की, इतनी नारेबाजी कर डाली कि बहुसंख्यकों को असुरक्षा बोध होने लगा जिसका प्रकटीकरण चुनाव दर चुनाव के नतीजों में हुआ । खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी ने किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया तो उसकी आलोचना तो हुई पर चुनाव नतीजे पर कोई असर नहीं पड़ा । बल्कि अब तो ये कहा जा सकता है कि पार्टी का मुसलमानों को टिकट नहीं देने का सियासी दांव सकारात्मक नतीजा दे गया ।
अल्पसंख्यकों की तरह ही किसानों के बारे में लगातार बातें होती रही लेकिन आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे किसान अपनी फसल के लिए इंद्र देवता की मेहरबानी पर ही निर्भर हैं। अगर मॉनसून अच्छा हुआ तो फसल अच्छी होगी नहीं तो किसान बदहाली का शिकार हो जाएगा। किसानों की बेहतरी के लिए ठोस नीति की आवश्यकता है।मौजूदा सरकार ने किसानों को ध्यान में रखकर कई कार्यक्रमों का एलान किया है लेकिन वो किसानों की समस्या को दूर करने के लिए काफी नहीं हैं । बाजार के नियमों के हिसाब यानि मांग और आपूर्ति के हिसाब से किसानों के उत्पाद का बाजार भाव तय किया जाना चाहिए। अभी तक होता क्या है जब आपूर्ति बढ़ जाती है तो किसानो को नुकसान होता है और जब आपूर्ति कम होती है तब भी किसानों को फायदा नहीं होता है क्योंकि एक तो उन पर अपने उत्पादों का दाम नहीं बढ़ाने का नैतिक दबाव रहता है दूसरे सरकारी खरीद में तय रेट पर ही अन्न खरीदे जाते हैं । इसका नुकसान ये होता है कि किसान पूंजी जमा नहीं कर पाता है । किसानों की बेहतरी के लिए यह बहुत जरूरी है कि वो पूंजी जमा करे । इसके अलावा देश पर संकट आदि आता है देश को उद्योगपतियों से ज्यादा किसानों से उम्मीद रहती है और उनको अन्नदाता आदि कहकर बरगलाया जाता रहा है ।
देश के कई राज्यों में किसानों की हालत को समझने के लिए इन आंकड़ों पर नजर डालते हैं । नेशनल सैंपल सर्वे के सिचुएशनल असेसमेंट सर्वे के मुताबिक उत्तर प्रदेश के किसान परिवारों की औसत आय चार हजार नौ सौ तेइस रुपए है और उसका खर्च छह हजार दो सौ तीस रुपए है । इस सर्वे के नतीजों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक किसान परिवार को हर महीने तेरह सौ सात रुपए यानि सालभर में पंद्रह हजार छह सौ चौरासी रुपए का अतिरिक्त जुगाड़ करना पड़ता है । पैसों का यह अतिरिक्त जुगाड़ बैंकों से कर्ज से नहीं हो पाता है बल्कि ऊंचे ब्याज दर पर स्थानीय साहूकारों से लेना पड़ता है। साल दर साल किसान के परिवार पर यह कर्ज बढ़ता जाता है क्योंकि ब्याज चुकाने में ही उसका दम निकल जाता है। ऐसा नहीं है कि किसानों की यह हालत सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही है, पश्चिम बंगाल समेत देश के कई अन्य राज्यों में भी किसानों को स्थानीय साहूकारों के कर्ज के भरोसे परिवार चलाना पड़ता है ।और यही कर्ज जब बढ़ जाता है तब किसान मौत को गले लगाने के रास्ते पर चल निकलता है ।
किसान ऐसा नहीं करें इसके लिए आवश्यक है कि उनके पास एक निश्चित पूंजी हो जिससे वो अपने खर्चे का घाटा पूरा कर सके । दरअसल हम देखें तो इस दिशा में ज्यादा सोचा नहीं गया । किसानों को समाजवाद की घुट्टी आदि पिला-पिलाकर गरीब रखा गया जबकि होना यह चाहिए था कि किसानों को मांग और पूर्ति के हिसाब से उनके उत्पादों का मूल्य मिलना चाहिए था। किसानों को कारोबारियों की तरह खुलकर अपना कारोबार करने की छूट मिलनी चाहिए थी । कम आपूर्ति के वक्त उनको पैसे कमाने की छूट मिलनी चाहिए थी या उनके उत्पादों को सरकार को मांग और आपूर्ति के नियम के हिसाब से खरीदना चाहिए था ताकि उनको अधिक मूल्य या मुनाफा हासिल हो पाता और वो भविष्यके लिए पूंजा इकट्ठा कर सकते । कम आपूर्ति के दौर में सरकार उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए अलग से कोई कदम उठा सकती थी लेकिन हुआ ये कि किसानों के उत्पादनों के हितों का ध्यान रखे बगैर उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखा गया । कृषि उत्पादों का मूल्य रेगुलेट करने से किसानों को बाजार में उत्पाद की कमी से जो मुनाफा हासिल हो सकता था वो हो नहीं पाया । नतीजे में पूंजी जमा नहीं हो पाई और किसान अपने नियमित खर्च के लिए साहूकार के पास जाने के लिए मजबूर हो गया । 
किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत करने के बजाए अबतक की सरकारों ने किसानों को छोटे छोटे आर्थिक लाभ का लॉलीपॉप दिया । कभी किसानों की कर्ज माफी का दांव चला गया तो कभी बिजली बिलों की माफी दी गई । किसानों को लगातार फर्टिलाइजर पर सब्सिडी देने की नीति भी बनाई गई । खादकी इस सब्सिडी में कितने बड़े बड़े घोटाले हुए ये देश ने देखा । एक जमाने में तो सौ करोड़ से ज्यादा का यूरिया घोटाला सामने आया था जिसके छींटे एक केंद्रीय मंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री के बेटे के दामन पर भी पड़े थे। खाद पर सब्सिडी का जो पूरा तंत्र है उससे किसानों से ज्यादा फायदा बिचौलियों और सरकारी अफसरों को हुआ। किसानों तक उचित लाभ तो पहुंचा नहीं लेकिन अफसरों और नेताओं की तिजोरियां भरती चली गईं । जरूरत इस बात की है कि किसानों को आर्थिक रूप से इतना समृद्ध किया जाए कि वो बाजार भाव पर बीज और खाद खरीद सकें । इसके लिए बाजार मे किसान को मजबूत करना होगा । किसानों के कर्ज को माफ करने की बजाए किसानों की बैंकों में जमा पूंजी पर ज्यादा ब्याज देने का प्रावधान किया जा सके । जिस तरह से बुजुर्गों को आर्थिक तौर पर मजबूत करने के लिए बैंक उनके जमा रकम पर ज्यादा ब्याज देती है उसी तरह से किसानों के लिए भी कोई नीति बनानी चाहिए । दरअसल किसानों पर दोहरी मार पड़ी । हुआ यह कि उनको बाजार के सारे नियम तो मानने पड़े लेकिन उनके उत्पादों को बाजार में खुलकर खेलने का मौका नहीं मिला । जरूरत इस बात की है किसानों को दया का पात्र नहीं बनाया जाए बल्कि उनको सचमुच अन्नदाता की हैसियत मिले ।   

No comments: