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Saturday, November 26, 2016

साहित्य का 'समीकरण काल'

हिंदी साहित्य में फेसबुक अब एक अनिवार्य तत्व की तरह उपस्थित है । कई साहित्यकार इस माध्यम को लेकर खासे उत्साहित रहते हैं । उनका मानना है कि फेसबुक ने नए-पुराने लेखकों को एक खुला मंच दिया जहां आकर वो अपनी बात कर सकते हैं । इस मंच पर वो अपनी रचनाएं लिख सकते हैं, यहां अपनी राय प्रकट करने के साथ-साथ बहस मुहाबिसे में भी हिस्सा ले सकते हैं । इस माध्यम की वकालत करनेवालों को ये अभिव्यक्ति का ऐसा मंच मानते हैं जहां कोई बंदिश नहीं है । लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जो इस असीमित अधिकार को लेकर सशंकित रहता है और उनका तर्क होता है कि इससे साहित्य में अराजकता को बढ़ावा मिलता है । सोशल मीडिया के इन दो पक्षों पर ही बहस होती रहती है लेकिन इसका एक तीसरा और दिलचस्प पक्ष भी है । फेसबुक आपको साहित्यक समीकरणों को समझने में मदद तो करता ही है कई बार इन समीकरणों को उघाड़कर रख देता है । हिंदी साहित्य में लेखकों के बीच समीकरण बनते बिगड़ते रहते हैं । इस बात को फेसबुक पर इनकी गतिविधियों से सहजता के साथ रेखांकित किया जा सकता है । हिंदी साहित्य का ये दौर समीकरणों का दौर है जहां ज्यादातक लेखक आत्ममुग्धता, आत्मश्लाघा और आत्मप्रशंसा में डूबे हैं । आत्ममुग्धता, आत्मश्लाघा और आत्मप्रशंसा ही साहित्य में नए समीकरणों को जन्म देती रहती है । इस वक्त साहित्य की दुनिया में हर रोज नए ध्रुवों और गुटों का जन्म होता है और इस जन्म की सूचना आपको फेसबुक पर मिल जाती है । फेसबुक के लोकप्रिय होने के पहले तो होता ये था कि लेखकों को किसी के पक्ष में दिखने या खड़े होने के लिए लेख आदि लिखने पड़ते थे लेकिन फेसबुक ने वो काम आसान कर दिया । अब आप लाइक या कमेंट या शेयर कर किसी के पक्ष में खड़े हो जाते हैं । कुछ सालों पहले जब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय ने ज्ञानोदय पत्रिका में इंटरव्यू दिया था और उस इंटरव्यू के बाद छिनाल विवाद छिड़ा था तो मैत्रेयी पुष्पा ने उनके खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद किया था । भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर के बाहर मैत्रेयी पुष्पा के साथ नारे लगानेवाले साहित्यकार कालांतर में एक एक करके उनका साथ छोड़ गए । बिछड़े सभी बारी बारी बारी की तर्ज पर कोई वर्धा विश्वविद्यालय से जुड़ गया तो कोई कुलपति विभूति नारायण राय से किसी और तरह से उपकृत होकर उनके साथ हो लिया । इसी तरह से युवाओं को लेकर भी साहित्य में एक लंबी बहस चली थी जिसमें एक तरफ मैत्रेयी पुष्पा थीं और दूसरी तरफ कई लेखिकाएं । उस वक्त मैत्रेयी जी का खुलकर और लिखकर विरोध करनेवाली कई लेखिकाएं इन दिनों मैत्रेयी पुष्पा के साथ मंच साझा करती नजर आ रही हैं । मैत्रेयी पुष्पा भी उन लेखिकाओं के कार्यक्रमों में शिरकत कर रही हैं । तो इस तरह से अगर देखा जाए तो साहित्य जगत की इन जीवंतताओं का पता फेसबुक से ही चलता है । जीवंतता इस वजह से कह रहा हूं कि इसको गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है और मनोरंजन के तौर पर इसका आनंद उठाना चाहिए क्योंकि ये मंच सबको एक्सपोज करता चलता है । एक्सपोज इस वजह से कि जोकमेंट किए जाते हैं वो बहुधा व्यक्तिगत हो जाते हैं । चंद सालों पहले एक लेखिका ने दूसरी लेखिका के खिलाफ फर्जी आईडी से कई आपत्तिजनक पोस्ट डाले थे । तब शायद उनको मालूममहीं रहा होगा कि कंप्यूटर और इंटरनेट के कनेक्शन की वजह से पोस्ट डालने वाले की पहचान हो सकती है । उस वक्त ये हुआ भी था और साहित्य जगत में बहुत बवाल खड़ा हुआ था ।  
गुटबाजी के इस खुले खेल के अलावा भी फेसबुक साहित्यक माहौल को जीवंत बनाए रखता है । फेसबुक को अगर आप नियमितता के साथ फॉलो करेंगे तो वहां आपको दो तीन लेखकों का एक ग्रुप नजर आएगा जो हर दिन किसी ना किसी तरह का विवाद उठाने के उपक्रम में जुड़े रहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इन लेखकों का ये छोटा गुट सुबह तय कर लेता है कि आज फलां लेखक को या फलां लेखिका को घेरना है और उसपर येनकेन प्रकारेण साहित्यक या साहित्येतर वजह से हमले करने हैं । अपनी योजना पर अमल करते हुए विवादित पोस्ट लिखे जाते हैं । उसके बाद होता है कि उन लेखकों से जुड़े छोटे-मोटे लेखक या लेखक बनने के लिए संघर्ष कर रहे कुछ लोग अति उत्साह में आकर इस या उस पक्ष पर हमलावर हो जाते हैं । साहित्य के इस खेल में बहुधा भाषिक मर्यादा की लक्षम्णरेखा लांघी जाती है, जिससे बचा जाना चाहिए । फेसबुक पर साहित्य से जुड़े कई लोग आपको ऐसे मिल जाएंगे जो अपने मठाधीश के हर पोस्ट पर किसी ना किसी तरह की टिप्पणी अवश्य करते हैं । वाह से लेकर आह टाइप की । फेसबुक पर कोई एक मठाधीश नहीं है यहां तो बडे. मंझोले और छोटे मठाधीश आपको मिल जाएंगे । कई मठाधीश तो इतने असहिष्णु हैं कि वो अपना मर्यादित विरोध नहीं झेल पाते हैं और विरोध के तर्क देनवाले को ब्लॉक कर अपना परचम लहराते रहते हैं ।

अब अगर हम विचार करें तो फेसबुक ने साहित्यक माहौल में अवश्य ही अनेक आयाम जोड़ दिए हैं लेकिन इन आयामों से साहित्य को क्या हासिल हो रहा है । हासिल हो रहा है भगवानदास मोरवाल सरीखे वरिष्ठ लेखकों का जो फेसबुक के मंच को अपनी किताब के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करते हैं । अपनी किताब के प्रमोशन का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं बल्कि मौके पैदा कर लेते हैं । फेसबुक का ये इस्तेमाल तो कोलकाता की साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखिका अलका सरावगी ने भी अपनी किताब जानकीदास तेजपाल मैनशन के प्रकाशन के वक्त किया था । उन्होंने भी जमकर अपनीकिताब का प्रचार किया था । तब उसको लेकर भी विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई थी । लेकिन देश में इंटरनेट के बढ़ते घनत्व के मद्देनजर फेसबुक जैसा माध्यम लेखकों को पाठकों तक पहुंचने का माध्यम बन सकता है । हलांकि इस माध्यम को चलानेवाले इसमें कारोबार की असीम संभवानाओं के मद्देनजर पोस्ट की पहुंच को सीमित कर दे रहे हैं बावजूद इसके लेखकों को इसका इस्तेमाल करना चाहिए । लेखकनुमा विवादप्रिय लोग तो कर ही रहे हैं, जेनुइन लेखकों को भी करना चाहिए । 

1 comment:

वंदना शुक्ला said...

बिलकुल सही आकलन....
वस्तुतः आज किताबें और लेखक लोकप्रिय होते नहीं उन्हें बाकायदा सुनियोजित तरीके से लोकप्रिय बनाया जाता है जिसमे फेसबुक सर्वाधिक प्रचलित व् सशक्त ज़रिया है |कुछ किताबें फेसबुकी धुआंधार विज्ञापनों /प्रचार के वशीभूत खरीद ली जाती हैं कुछ मित्रता वश, कुछ को लेखक /प्रकाशकों द्वारा भेंट स्वरुप मिल जाती हैं,इत्यादि ... लेकिन कुछ ही सही ,अपनी रूचि और वास्तविक गुणवत्ता के प्रभाव से भी पढी जाती हैं |कहना शायद गलत न होगा कि किताबों की प्रस्तावित पांडुलिपियाँ लेखक/ प्रमोटर्स के इसी ‘’किये गए प्रचार’’ के प्रभाव से आगे खिसकती हैं |अगले चरण में ये प्रकाशकों के कुछ् नियत आलोचकों/ वरिष्ठ लेखकों द्वारा पढ़वाकर स्वीकृत अस्वीकृत की जाती हैं | प्रायः पाण्डुलिपि कारों के भाग्य/ दुर्भाग्य से वो स्वीकृत / अस्वीकृत होती हैं | यदि आप ( अ स्थापित लेखक )उन चयन कर्ता विद्वानों की गुड लिस्ट में हैं यानी आप उक्त चयनकर्ता की पोस्ट्स पर प्रसंशाओं के पुल बांधते रहे हैं तो वारे न्यारे हैं ही और यदि आप ने कभी उनसे अथवा उनकी किसी प्रिय/लोकप्रिय वरिष्ठ लेखिका/ लेखक की किसी पोस्ट पर असहमति जताकर बाकायदा पंगा ले ही लिया है तो बिना पढ़े अस्वीकृत का ठप्पा लगाकर पाण्डुलिपि को लौट आने से कोई नहीं बचा सकता |
कुछ वरिष्ठ लोकप्रिय (?) साहित्यकारों / प्रकाशकों के रुआब का इस कदर प्रभाव है कि कई नए पुराने लेखक उनकी चिरोरी में ही अपना भला समझते हैं |और निस्संदेह उसका ‘’प्रसाद’ उन्हें मिलता भी है |’’
लोकप्रिय और गंभीर साहित्य ’’ विषय पर आपने ( अनंत विजय जी )एक बातचीत में कहा था कि ‘’वामपंथ ने हिन्दी साहित्य में अलग वर्ण व्यवस्था कायम की है |और उन्होंने ही साहित्य को लोकप्रिय और गंभीर साहित्य में विभाजित किया है’’ विचारणीय है | वस्तुतः वामपंथ स्वयं इस बाजारवाद की गिरफ्त में है | आज यहाँ जितने भ्रम और पाखण्ड हैं उतने और कहीं नहीं | इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता लेकिन साहित्य में भेद कर देने के लिए सिर्फ विचारधारा नहीं बल्कि बाजारवाद, प्रचार के आधुनिक संसाधन ,अन्य भाषाओं के साहित्य से गुरेज़ , गुटबाजी , चापलूसी आदी भी समान उत्तरदायी है |