वर्ष दो हजार सोलह बीतने को है, साहित्य और संस्कृति को
लेकर इस बीतते हुए साल में काफी कोलाहल हुआ । आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि
किसी और विचारधारा ने स्थापित विचारधारा को चुनौती दी । इसके पीछे राजनीतिक और गैर
राजनीतिक कारण हो सकते हैं लेकिन इस बीतते हुए वर्ष में विमर्श के कोलाहल के बीच
साहित्य, संस्कृति और कला के दिग्गजों के निधन ने अपनी अपनी विधाओं को विपन्न कर
दिया । इस साल के शुरुआत में ही हिंदी के यशस्वी कथाकार और बेहतरीन संपादक रवीन्द्र कालिया का छिहत्तर साल की
उम्र में निधन हो गया । रवीन्द्र कालिया बेहतर कथाकार थे या बेहतर संपादक ये तय करना मुश्किल है लेकिन एक बात जिसपर पूरे साहित्य में मतैक्य है वो ये कि वो एक बेहतरीन और बेहद जिंदादिल इंसान थे । हंस के संपादक राजेन्द्र यादव के निधन के बाद बोरियत की हद तक गंभीरता का आवरण ओढे दिल्ली की साहित्यक जमात में कालिया जी ही थे जो अपने विट और ह्यूमर से इसको बहुधा तोड़ते रहते थे । कालिया जी ने शिक्षण से अपने करियर की शुरुआत की फिर वो धर्मयुग में
धर्मवीर भारती की सोहबत में पत्रकारिता के तमाम गुर सीखे थे । मुंबई में रहते हुए कालिया जी ने साहित्य और पत्रकारिता को बेहद नजदीक से देखा जो बाद में उनकी कहानी काला रजिस्टर में सामने भी आया । रवीन्द्र कालिया, धर्मवीर भारती के साथ काम
करने के पहले मोहन राकेश की नजर में आ गए थे । माना जाता है कि भाषा का जो अनुशासन
रवीन्द्र कालिया में दिखाई देता है वो मोहन राकेश की ही सोहबत का असर था । एक
अनुमान के मुताबिक उनकी किताब ‘गालिब छुटी शराब’ धर्मवीर
भारती की ‘गुनाहों के देवता’ के बाद
हिंदी में सबसे ज्यादा बिकनेवाली किताबों में से है । एक बार कालिया जी ने कहा था कि हिंदी साहित्य
में कुछ कथाकार एक दूसरे को जलील करने के लिए कहानियां लिख रहे हैं । पात्रों के
चयन से ये बात साफ होती भी रही है । आज वो नहीं हैं लेकिन उनकी कही कई बातें आज भी
साहित्य में गूंज रही हैं
कालिया जी के निधन से
साहित्य जगत उबरा भी नहीं था कि निदा फाजली के निधन ने एक बार फिर से इस दुनिया को
हिला दिया । निदा फाजली हिंदी-उर्दू की तरक्कीपसंद अदबी रवायत के प्रतिनिधि शायर
थे । मजरूह सुल्तानपुरी के बाद निदा ऐसे शायर थे जिन्होंने शायरी को उर्दू और
फारसी की गिरफ्त से आजाद कर आम लोगों तक पहुंचाया । उन्होंने हिंदी-उर्दू की जुबां
में शायरी की । कह सकते हैं कि हिन्दुस्तानी उनकी शायरी में बेहतरीन रूप से सामने
आई । ताउम्र निदा हिंदी और उर्दू के बीच की खाई को पाटने में लगे भी रहे । वो इस
बात के विरोधी थे कि मुशायरों में सिर्फ शायरों को और कवि सम्मेलनों में सिर्फ कवियों
को बुलाया जाए । उन्होंने कई मंचों पर गोपाल दास नीरज के साथ साझेदारी में कविताएं
पढ़ी थी । उनकी शायरी को देखते हुए ये लगता था कि उन्होंने हिंदू मायथोलॉजी का
गहरा अध्ययन किया था । सूरदास और कबीर के पदों से उन्होंने प्रेरणा ली और शायरी की
। कबीर की तरह निदा भी कहते हैं - ‘बच्चा
बोला देखकर मस्जिद आलीशान, एक खुदा के पास इतना बड़ा मकान’
या फिर ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें , किसी
रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए ।‘ उनकी शायरी के ये स्वर अमर
हैं । निदा के बाद काल के क्रूर हाथों ने हमसे उर्दू के सबसे बड़े कहानीकारों में एक
जोगेन्द्र पॉल को छीन लिया । जोगेन्द्र पॉल पूरे उपमहाद्वीप में उर्दू पाठकों के
बीच बेहद लोकप्रिय थे । जोगेन्द्र पॉल का मानना था कि उर्दू भाषा नहीं बल्कि तहजीब
है वो अपना रचनात्मक लेखन एक तहजीब में करते हैं । जोगेन्द्र पॉल ने विपुल लेखन
किया है और उनके तेरह से अधिक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें खुला,
खोदू बाबा का मकबरा और बस्तिआन शामिल हैं । कहानियों के अलावा पॉल ने कई उपन्यास
भी लिखे जिनमें से एक बूंद लहू की खासी चर्चित रही है । पॉल की ज्यादातर किताबें
हिंदी में भी अनूदित हैं ।
हिंदी और उर्दू के ये महान विभूति एक एक कर जा रहे थे और साहित्य जगत
सदमे में था । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । हिंदी के मशहूर लेखक
मुद्राराक्षस का भी निधन हुआ ।छोटे
कदकाठी के मुद्राराक्षस अंत तक अपने सिद्धांतों पर डिगे ही नहीं रहे बल्कि उसको
फैलाने के लिए सक्रिय भी रहे । विचारों से मार्क्सवादी-लेनिनवादी मुद्रा जी ने
सामजिक आंदोलनों में भी भागीदारी की । लखनऊ के पास बेहटा में जन्मे मुद्राराक्षस
ने रंगमंच की दुनिया में भी अपना लोहा मनवाया । उनका लिखा - आला अफसर – बेहतरीन
नाटक है ।
बांग्ला की प्रख्यात साहित्यकार महाश्वेता देवी भी इस साल अपनी
महायात्रा पर निकल गईं । महाश्वेता
देवी लिखती अवश्य बांग्ला में थीं लेकिन वो पूरे देश में समादृत थीं । महाश्वेता
देवी के लेखन में समाज के हाशिए के लोगो की आवाज प्रमुखता से दिखाई देती थीं ।
महाश्वेता देवी के लेखन में एक खास किस्म का यथार्थ दिखाई देता था जो कि गढ़े हुए
यथार्थ से अलग होता था । महाश्वेता देवी जितना साहित्य में सक्रिय थी उतनी ही
सक्रियता से वो राजनीति के मसलों पर भी अपनी राय रखती थीं । उन्नीस सौ छब्बीस में
ढाका में साहित्यक परिवार में पैदा हुई महाश्वेता के पिता मनीष घटक मशहूर कवि थे
और चाचा ऋत्विक घटक मशहूर फिल्मकार । महाश्वेता देवी की हजार चौरासी की मां,
अरण्येर अधिकार, झांसीर रानी, अग्निगर्भा आदि मशहूर कृतियां थी । महाश्वेता देवी
को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, रोमन मैगसेसे अवॉर्ड समेत कई
सम्मान मिल चुके थे । भारत सरकार ने उनको पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया था ।
महाश्वेता के जाने
से साहित्य जगत की जो क्षति हुई है उतना ही बड़ा नुकसान सैयद हैदर रजा के निधन से
कला क्षेत्र को हुआ है । रजा साहब की चित्रकारी में अद्वैत दर्शन को साफ तौर पर
देखा जा सकता था । वो कहते भी थे कि दिव्य शक्तियों के सहयोग के बिना कला संभव
नहीं है । विशेषज्ञों का मानना है कि सैयद हैदर रजा रंगों के माध्यम से भारतीय
मिथकों के प्रतीकों का अपने चित्रों में इस्तेमाल करते हैं । इसी साल मशहूर तबला
वादक और गायक लच्छू महाराज भी हमें छोड़कर चले गए । स्वभाव से ठेठ बनारसी लच्छू
महाराज के जाने से भारतीय तबला वादन परंपरा में एक खास किस्म की खामोशी आई है । पंजाबी
के मशहूर कथाकार गुरदयाल सिंह भी इस वर्ष हमसे जुदा हो गए । गुरदयाल सिंह का लेखन
पचास सालों से ज्यादा के कालखंड में फैला है । उनका उपन्यास मरही दे दीवा पंजाबी
साहित्य में बेहद लोकप्रिय है और इस उपन्यास ने ही उनको उपन्यासकार के रूप में
प्रतिष्ठा दिलाई । इनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी हैं । गुरदयाल सिंह को उनके
लेखन के लिए प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला था । मलयालम के मशहूर कवि ओ वी
एन कुरुप का निधन भी साहित्य के लिए बड़ा झटका था । साल दो हजार सोलह अब बीतने को
हो रहा था लेकिन समय के गर्भ में क्या छुपा था इसका अंदाज तब लगा जब यशस्वी संपादक
और लेखक प्रभाकर श्रोत्रिय भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए । प्रभाकर श्रोत्रिय
नेअपने लेखन से हिंदी साहित्य को तो समृद्ध किया ही उन्होंने अपने संपादन से युवा
लेखकों की पहचानन कर उनको संस्कारित भी किया । यह उनका साहित्य का बड़ा योगदान है
। उन्होंने वागर्थ, नया ज्ञानोदय और साहित्य अकादमी की पत्रिकाओं का संपादन किया ।
पूरब के प्रेमचंद कहे जानेवाले विवेकी राय भी इस साल हमसे बिछुड़ गए । विवेकी राय
ने पचास से अधिक किताबें लिखीं । उनकी रचनाओं में भारत का गांव अपने समग्र परिवेश
के साथ उपस्थित रहता था । इनके ललित निबंध हिंदी साहित्य की थाती हैं और कहा जाता
है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की परंपरा तो
विवेकी राय ने काफी आगे बढ़ाया । बनारस और गाजीपुर इलाके में अपना जीवन बिकानेवाले
विवेकी राय जी के जाने से साहित्य में गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू कम होगी । विवेकी
राय के अलावा हाल ही में उपन्यासकार ह्रदयेश का भी निधन हुआ । ह्दयेश हिंदी के उन
चंद लेखकों में थे जो खामोशी के साथ बगैर किसी शोर-शराबे के लेखन में जुटे रहते थे
। उनके दस के करीब उपन्यास और दर्जनभर कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । इनकी
आत्मकथा को भी हिंदी के पाठकों ने खासा पसंद किया था । मशहूर कलाकार और पद्मविभूषण
से सम्मानित के जी सुब्रह्मण्य भी इस साल हमसे बिछड़ गए । इस साल पत्रकारिता को भी
एक बड़ा झटका लगा जब वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर का निधन हो गया । दिलीप उन संपादकों
में थे जो इस संस्था की गरिमा और साख बचाने के लिए अंतिम समय तक संघर्षरत रहे । इन
तमाम विभूतियों की स्मृति को नमन और श्रद्धांजलि ।
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