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Friday, December 16, 2016

निगेटिव रोल वाले एक्टर से तौबा

हाल ही में रिलीज रणवीर सिंह की फिल्म बेफिक्रे में जिस तरह से फिल्म की हिरोइन बोल्ड सीन्स देती है या फिर हीरो के साथ इंटीमेट होती है उससे लगता है कि अब फिल्में में हिरोइनें सबकुछ करने के लिए तैयार हैं । एक जमाना था जब दर्शकों को सेड्स करने के लिए हिंदी फिल्मों में वैंपिस कैरेक्टर हुआ करती थी । गाउन में बॉडी एक्सपोजर के साथ हेलेन के लटकों झटकों को कौन भूल सकता है । कम कपड़ों में डांस करनेवाली उस पात्र को लेकर दर्शक खासे उत्साहित रहा करते थे । इसी तरह से अभिनेत्री बिंदू को अब भी लोग याद करते हैं उनकी बोल्ड सीन्स और खास मौकों पर निचले होठ को दांत से काटने की अदा को । ये दौर हिंदी फिल्मों में बहुत लंबे समय तक चला । बाद में जयश्री टी ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश की लेकिन तबतक इस तरह के बोल्ड और निगेटिव रोल के लिए अलग से किसी कलाकार को रखने की जरूरत होती थी । ये वो दौर था जब फिल्मों की हिरोइनें निगेटिव रोल को लेकर बेहद सतर्क रहती थीं । उनको लगता था कि अगर वो निगेटिन रोल करेंगी तो समाज में उनकी छवि दरक जाएगी जिसका आगे चलकर उनको नुकसान होगा । लिहाजा फिल्मकारों को अपनी फिल्म के लिए अलग से एक बिंदास या बुरी लड़की की इमेज वाली अभिनेत्री को रखना पड़ता था । बाद में धीरे-धीरे ये परंपरा टूटने लगी । हिरोइनें बोल्ड होने लगीं, उनको अंग प्रदर्शन से परहेज नहीं रहा, उनके शरीर पर कपड़े कम होने लगे, वो डिस्को में हीरो के साथ बिंदास अदा के साथ डांस करती नजर आने लगीं । जब हिरोइनें ये करने लगीं तो इसको आइटम सांग कहा जाने लगा । शुकुआत में इन आइटम नंबर के लिए भी बिंदास बालाओं को रखा गया लेकिन मुख्य किरदार निभाने वाली हिरोइनें ही इस तरह की भूमिका के लिए तैयार होने लगीं या फिर टॉप की हिरोइन भी आइटम नंबर के लिए तैयार होने लगी । दर्शकों को मैं तो यूपी बिहार लूटने आई में शिल्पा शेट्टी की दिलकश अदा अब भी याद हैं । जब शिल्पा ने शेट्टी ने फिल्म शूल में इस गाने पर परफॉर्म किया तो वो अपने करियर के शिखर पर थीं । बाद में तो करीना कपूर और कटरीना कैफ जैसी टॉप की हिरोइन्स ने आइटम करना शुरू कर दिया । चिकनी चमेली से लेकर पटाइले सैंया मिस्ड कॉल से । इसके अलावा भी करीना और कटरीना कैफ कई आइटम सांग पर थिरकती नजर आईं । जब दो हजार ग्यारह में डर्टी पिक्चर रिलीज हुई तो विद्या बालन के रोल ने अबतक के तमाम टैबू को खत्म कर दिया । उ लाला उ लाला में जब वो नसीरुद्दीन शाह के साथ ट्राली पर थिरकती हैं तो उसका ही एक डॉयलॉग जेहन में आता है फिल्म का मतलब – एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और सिर्फ एंटरटेनमेंट ।

ये तो रही बोल्ड गानों की बात लेकिन ऐसा क्या हुआ कि हिंदी फिल्मों की हिरोइनें निगेटिव रोल भी करने लगीं । दरअसल जब काजोल की फिल्म गुप्त जब उन्नीस सौ सत्तानवे में रिलीज हुई तो उसने बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त सफलता हासिल की । इस फिल्म में काजोल निगेटिव रोल में थी और उनके साथ मनीषो कोइराला और बॉबी देयोल थे लेकिन इसको काजोल की फिल्म मानी गई । इस फिल्म की सफलता ने बॉलीवुड की हिरोइंस को निगेटिव रोल की तरफ कदम बढ़ाने का रास्ता खोल दिया । उसके बाद तो जैसे फिल्मों की हिरोइनों को किसी तरह के रोल से परहेज ही नहीं रहा । लेकिन इसका नतीजा यह हुआ है कि हिंदी फिल्मों में हेलेन और बिंदू जैसी अभिनेत्रियों के लिए जगह ही खत्म हो गई । आर्थिक उदारीकरण की बयार के बाद तो हिंदी फिल्मों में भी उदारीकरण का दौर शुरू हो गया और उसको सबसे पहले अपनाया हिंदी फिल्मों की हिरोइंस ने । ऐसा नहीं है कि हिंदी फिल्मों से सिर्फ खलनायिकाओं की भूमिका खत्म हुई बल्कि अब तो विशेषज्ञ खलनायकों की भी कमी महसूस की जाती है । हिंदी फिल्मों में खलनायकों की एक लंबी परंपरा रही है । जिसके चरिए और कमीनापन में वक्त के साथ साथ बदलाव देखने को मिलता रहा है ।  जीवन जैसे खलनायक के बाद प्रेम चोपड़ा, अमरीश पुरी, कुलभूषण खरबंदा जैसे खलनायकों का दौर रहा । इन सबके बीच प्राण साहब को कोई कैसे भूल सकता है जिन्होंने अपनी खलनायकी की भूमिका से  से फिल्मों को एक नई मुकाम दी । आज से चार दशक पहले फिल्म शोले में रमेश सिप्पी ने जिस गब्बर सिंह के किरदार को पेश किया था वो किरदार कई फिल्मों में मजबूती के साथ खड़ा रहा लेकिन बाद में उसकी भूमिका भी कम होती चली गई । इसके साथ कादर खान, शक्ति कपूर और गुलशन ग्रोवर ने भी अपनी अदायगी और फिल्मी पर्दे की बदमाशियों की वजह से दर्शको के बीच सोकप्रियता हासिल की । जब अस्सी के दशक की शुरुआत में फिल्म जितेन्द और श्रीदेवी फिल्म तोहफा रिलीज हुई थी तो उस फिल्म के साथ शक्ति कपूर एक जुमला आउउ भी लोगों की जुबान पर चढ़ गया था । किसी भी किरदार की सफलता उसके संवाद के लोगों की दुबान पर चढ़ जाने से आंकी जा सकती है । फिल्म शोले के बाद गब्बर और कालिया के बीच का संवाद खूब दोहराया जाता था । उसके बाद लंबे समय तक जो भी फिल्में आईं उसमें अमरीश पुरी, कादर खान और गुलशन ग्रोवर की उपस्थिति लगभग आवश्यक रहती थी । लेकिन धीरे –धीरे नायक और खलनायक के बीच का भेद भी खत्म होने लगा था । शाहरूख खान की फिल्म बाजीगर का कैरेक्टर, फिल्म वास्तव में संजय दत्त का कैरेक्टर, अजनबी में अक्षय कुमार की भूमिका इस दीवार को तोड़ने की बुनियाद रख रहा था । धीरे धीरे ये हुआ कि फिल्मों से खलनायक गायब होते चले गए । उधर सलमान खान की फिल्मों में जो खलनायक होते हैं उनके लिए पिटने के अलावा करने के लिए कुछ और होता नहीं है लिहाजा नए अभिनेताओं ने उस ओर जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई । फिल्मकारों को भी नायकों के तौर पर नए खलनायक मिलने लगे तो उन्होंने भी हिरोज़ से इस तरह के रोल करवाने शुरू कर दिए ।

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