हिंदी के लिए इस बार साहित्य अकादमी पुरस्कार वरिष्ठ उपन्यासकार नासिरा
शर्मा को उनकी कृति पारिजात पर देने का एलान किया गया है । पारिजात में नासिरा
शर्मा ने लखनऊ और इलाहाबाद की पृष्ठभूमि को अवधिया तहजीब और लोगों पर उसके प्रभाव
को विषय बनाया है । इस बार के चयनमंडल में वरिष्ठ कवि रामदरश मिश्र, लेखक रमेशचंद्र
शाह और पुरुषोत्तम अग्रवाल थे । जब से विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष
बने हैं तब से कमोबेश हिंदी भाषा के लिए दिए गए पुरस्कार अपेक्षाकृत कम विवादित
हुए हैं । लेकिन नासिरा शर्मा को उनकी कमजोर कृति पर पुरस्कार दिया गया है । उनके
पहले के उपन्यास इस कृति पारिजात से बेहतर हैं लेकिन साहित्य अकादमी के पिछले पांच
साल के नियम के मद्देनजर वो कृतियां विचारारार्थ नहीं आ सकती थीं लिहाजा पारिजात
को पुरस्कृत किया गया । पहले भी ऐसा होता रहा है । पिछले साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदी के वयोवृदध लेखक रामदरश मिश्र को
उनके कविता संग्रह पर दिया गया । असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी पुरस्कार
वापसी के कोलाहल के बीच रामदरश मिश्र से बेहतर चयन शायद ही कोई होता । बानवे साल
के रामदरश मिश्र जी को पुरस्कार देने पर कोई विवाद तो नहीं हुआ लेकिन यह सवाल जरूर
उठा कि साहित्य अकादमी पुरस्कार हाल के दिनों में लेखकों की उम्र को देखकर दिया
जाने लगा है । यह बात भी कही गई कि थी साहित्य अकादमी पुरस्कार अब कृति पर देने की
बजाए लाइफटाइम अचीवमेंट के तौर पर दिया जाना चाहिए । रामदरश मिश्र जी को भी उनके
कविता संग्रह ‘आग पर हंसी’ के लिए पुरस्कृत किया गया, जो कि उनके ही रचे साहित्य में तुलनात्मक रूप से
कमजोर कृति है । इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए की रामदरश जी को अगर इस उम्र
में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो फिर किस उम्र में उनके कद के लेखकों को
अकादमी की महत्तर सदस्यता से सम्मानित किया जाएगा । दरअसल साहित्य अकादमी
पुरस्कारों को लेकर अकादमी के संविधान में आमूल चूल सुधार की आवश्यकता है ।
साहित्य अकादमी
पुरस्कारों में सत्तर के दशक से गड़बड़ियां शुरू हो गई । अगर ठीक से साहित्य
अकादमी के इतिहास का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि मार्क्सवादियों के साथ ही
अकादमी में गड़बड़झाले का प्रवेश हुआ । 12 मार्च 1954 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि साहित्य अकादमी का उद्देश्य शब्दों की दुनिया
में मुकाम हासिल करनेवाले लेखकों की पहचान करना, उन लेखकों को प्रोत्साहित करना और
आम जनता की रुचियों का परिष्कार करना है । इसके अलावा अकादमी को साहित्य और आलोचना
के स्तर को बेहतर करने के लिए भी प्रयास किया जाना चाहिए । 1954 में साहित्य
अकादमी पुरस्कार देने के प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी और 1955 में पहला साहित्य
अकादमी पुरस्कार माखनलाल चतुर्वेदी को उनकी कृति ‘हिम तरंगिणी’ दिया गया था ।
साहित्य अकादमी
पुरस्कार में एक गड़बड़ी ये भी हुई है कि अबतक किसी भी मुसलमान लेखक को
हिंदी में
लेखन के लिए पुरस्कृत करने योग्य नहीं माना गया । यह सही है कि साहित्य, जाति,
धर्म वर्ण, संप्रदाय आदि से उपर होता है और रचनाओं को किसी खांचे में बांधना उचित
नहीं होगा । लेकिन अगर साठ साल के लंबे अंतराल में एक खास समुदाय के लेखकों की
पहचान और सम्मान ना हो तो प्रश्न अंकुरित होने लगते हैं । ‘काला जल’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखनेवाले गुलशेर खां शानी, ‘आधा गांव’ जैसे बेहतरीन उपन्यास के लेखक राही मासूम रजा, ‘सूखा बरगद’ जैसे उपन्यास के रचयिता मंजूर एहतेशाम को भी साहित्य अकादमी ने सम्मानित करने
के योग्य नहीं माना ।
सत्तर के दशक के
बाद साहित्य अकादमी पर धर्मनिरपेक्षता के चैंपियनों का कब्जा रहा । अल्पसंख्यकों
के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों ने उनके नाम की तख्ती तो लगाई लेकिन कभी भी उस
तख्ती को सम्मान नहीं दिया । दरअसल साहित्य अकादमी पर इमरजेंसी के बाद जो भी शख्स
हिंदी भाषा के कर्ताधर्ता रहे उनमें से ज्यादातार ने खास विचारधारा के ध्वजवाहकों
को सम्मानित किया । मेधा और प्रतिभा पर अपने लोगों को तरजीह दी गई । यह लंबे समय
तक चला और मुस्लिम लेखकों के साथ अन्याय होता चला गया । अपनों को रेवड़ी बांटने के
चक्कर में इनका सांप्रदायिक चेहरा दबा रहा लेकिन अब वक्त आ गया है कि उनके चेहरे
से नकाब उठाया जाए और उन सभी से ये सवाल पूछा जाए कि शानी, रजा, मंजूर एहतेशाम,
असगर वजाहत को क्यों नजरअंदाज किया । साहित्य अकादमी के कथित सेक्युलर लेखकों ने
साहित्य अकादमी ने उर्दू में लिखने वाले गोपीचंद नारंग, गुलजार जैसे हिंदू लेखकों
को सम्नानित किया लेकिन हिंदी कर्ताधर्ता वो दरियादिली नहीं दिखा सके । सुरसा के
मुंह की तरह ये सवाल साहित्य अकादमी के सामने खड़ा था । अब नासिरा शर्मा को
साहित्य अकादमी पुरस्कार देकर अकादमी इस कलंक से लगभग मुक्त हो गई है ।
बात सिर्फ
मुस्लिम लेखकों की ही नहीं है । साहित्य अकादमी ने संभवत: अबतक किसी दलित लेखक को भी सम्मानित नहीं किया । इसके
पीछे क्या वजह हो सकती है । जब भी जो भी हिंदी भाषा के संयोजक रहे उन्होंने अपने
हिसाब से पुरस्कारों का बंटवारा किया । वर्तमान अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी जब हिंदी
भाषा के संयोजक के चुनाव में खड़े हुए थे तब हिंदी के ही एक अन्य लेखक ने दावेदारी
ठोकी थी लेकिन तब उनको यह समझा दिया गया कि संयोजक होने से पुरस्कार नहीं मिल
पाएगा, लिहाजा वो नाम वापस ले लें । हुआ भी वही । जब सौदेबाजी, क्षेत्रवाद,
जातिवाद के आधार पर पुरस्कार दिए जाते रहे तो फिर दलितों और मुसलमानों के मुद्दों
के चैंपियन क्यों खामोश रहे । साहित्य के इन मठाधीशों के खिलाफ किसी कोने अंतरे से
आवाज नहीं उठी थी, जो भी आवाज उठाने की हिम्मत करता उसको हाशिए पर धकेल दिया जाता
था । इस परिस्थिति को देखते हुए अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन के कथन का स्मरण होता
है – ‘यह एक नियम है कि शिक्षित लोग मशीनगन के सामने भी उतना कायरतापूर्ण व्यवहार
नहीं करते जितना बड़बोले वामपंथी लफ्फाजों के सामने ।‘ यह अकारण नहीं है कि अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन इस तरह
की बात करते थे । दरअसल इन बड़बोले वामपंथी लफ्फाजों ने वर्षों तक सही बात कहनेवालों
का मुंह बंद करके रखा । वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी में इन्होंने जो गलतियां
की उसको सुधारा जाए । अकादमी के संविधान में संशोधन करके तमाम योग्य मुस्लिम और
दलित लेखकों को मरणोपरांत पुरस्कृत किया जाए ।
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