भवानी
प्रसाद मिश्र की एक कविता हैं जिस तरह हम बोलते हैं /उस तरह तू लिख/और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू
दिख/चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद
सिर चढ़ जाए/ बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन
बढ़ जाए । इस कविता में कवि साफ तौर पर लेखकों को चुनौती देते हुए दिख रहे
हैं कि जिस तरह से आप बोलते हैं उसी तरह से लिखें । दरअसल हिंदी साहित्य में ये
बड़ी समस्या है कि लेखक जब लिखने बैठते हैं तो वो अलग किस्म की हिंदी लिखते हैं और
जब वो बोलते हैं तो अलग किस्म की हिंदी सामने आती है । भवानी प्रसाद मिश्र यही कह
रहे हैं कि जिस तरह से लेखक बोलते हैं उसी तरह से लिखें और फिर बड़ा बनकर दिखाएं ।
लिखने और बोलने की भाषा में फर्क होता है लेकिन चुनौती यही रहती है कि किस तरह से
पात्रों और परिवेश के मुताबिक भाषा का इस्तेमाल किया जाए । इस बात पर लंबी बहस की
गुंजाइश भी बनती है । एक दिन कहानीकार और उपन्यासकार रत्नेश्वर से इस विषय पर बात
हो रही थी तो उन्होंने जो बात कही उसको रेखांकित किया जाना जरूरी है । हमारा तर्क
ये था कि पात्र अपने परिवेश के हिसाब से संवाद करें और मैंने अपने तर्क के समर्थन
में रेणु के मैला आंचल के पात्रों का उदाहरण दिया । रत्नेश्वर का तर्क था कि परिवेश
के हिसाब से भाषा होनी चाहिए लेकिन अगर बिल्कुल ही उसकी भाषा में बात होगी तो फिर
पाठकों को समझने में दिक्कत होगी । उन्होंने मैथिली का उदाहरण देते हुए कहा कि अगर
पात्र दरभंगा से है और वो खालिस मैथिली में बात करेगा तो हिंदी के राजस्थान और
मध्यप्रदेश के पाठकों को समझने में दिक्कत होगी । उनका कहना था कि पात्रों की बोली
वाणी में उसके परिवेश का पुट होना चाहिए लेकिन पूरी तरह से स्थानीय भाषा में लिखकर
पाठकों की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए । रत्नेश्वर के तर्कों में दम है लेकिन भवानी
प्रसाद मिश्र जिस ओर संकेत कर रहे थे उसका मतलब यह है कि साहित्यक कृतियों में
जानबूझकर ऐसे शब्द नहीं ठूंसे जाने चाहिए
जिसको समझने में पाठकों को दिक्कत हो । उससे पाठकों पर लेखक का रौब तो गालिब हो
सकता है लेकिन पाठकों का प्यार भी मिल जाए यह आवश्यक नहीं है ।
हिंदी
में इन दिनों युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी आई है जो अपने आसपास के परिवेश पर इसी
बोली वाणी में उपन्यास लिख रही है । अपनी उम्र और अपनी जिंदगी में बोली जानेवाली
भाषा को पात्रों के माध्यम से कृतियों में उतार रही है । कई लोगों को इसपर ऐतराज
भी है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो रही है । भाषा की मर्यादा नष्ट की जा रही है । भाषा
के व्यावकरण के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है लेकिन ये पीढ़ी है कि मानने को तैयार
नहीं है । इनका तर्क वही है कि पात्र तो वही बोलेगा जो वो असल जिंदगी में बोलता है
। बहुत हद तक यह बात सही हो सकती है कि पात्र वही बोलेगा जो वो हकीकत में बोलता है
। वो तो इसको यथार्थवादी कृति कहकर शान से हिंदी के मैदान में डटे हैं । इस तरह के
उपन्यासों की ऑनलाइन बिक्री के आंकड़ों से उनके हौसले भी बुलंद हैं । दरअसल होता
यह है कि सफलता के बाद वो फॉर्मूला मान्य भी हो जाता है । जब कोई फॉर्मूला मान्य
होता है तो उसको अपनाने वालों की संख्या भी बढ़ जाती है । कुछ ऐसा ही इस तरह की
कृतियों के साथ भी हो रहा है ।
अभी
उपन्यासकार सत्य व्यास का दूसरा उपन्यास दिल्ली दरबार छपा है । इसके पहले छपा उनका
उपन्यास बनारस टॉकीज भी काफी पढ़ा गया था और उसकी जमकर तारीफ भी हुई थी । उनके नए
उपन्यास का नायक राहुल मिश्रा का जो चरित्र है वो छोटे शहरों से दिल्ली में आकर
रहनेवाले लड़कों के मनोविज्ञान को बहुत तक सामने लाता है । दिल्ली में किराए का
कमरा, मकान मालिक की लड़की से मोहब्बत, मोहब्बत की मुसीबत आदि आदि । लेकिन जो सबसे
चौंकानेवाली बात है वो यह है कि इसकी भाषा पूरी तरह से वही है जिसमें
विश्वविद्यालय के छात्र आपस में बात करते हैं । भाषा कैसी होगी इस बात के संकेत वो
उपन्यास शुरू करते ही दे देते हैं । जरा देखिए- ‘उस रोज
दो घटनाएं हुईं । दिन में मोहल्लेवालों ने शुक्ला जी कीटीवी पर रामायण देखा था और
रात में महाभारत हो गया था । दिन में सीता जी अपनी कुटिया से गायब हुई थी और रात
में गीताजी ( शुक्ला जी की बेटी) अपनी खटिया से । सीता जी जब गायब हुईं तो रावण के
पुष्पक विमान पर नजर आईं । गीता जी जब गायब हुई तो पुजारी जी के मचान पर नजर आईं ।
रावण ने सीताहरण में बलप्रयोग किया था । पुजारी जी के बेटे देवदत्त ने गीतावरण में
लव प्रयोग किया था । सीता जी को पुष्पक पर जटायु ने देखा था और उन्हें बचाने की
भरपूर कोशिश की थी । गीता जी को पुजारी के मचान पर जटाशंकर चाचा ने देख लिया था और
बात फैलाने में कोई कोताही नहीं की थी ।‘ इसके अलावा दो मित्र एक
लड़की के बारे में बात करते हैं – ‘क्या हुआ बे । जान बहुत नाराज नजर आई आज ? मैंने कमरे में घुसते ही
पूछा । जान के पप्पा की बिग टाइम लंका लगी है । राहुल ने कपड़ा मुंह में ठूंस कर
हंसी रोकते हुए कहा ।‘ इस तरह के कई प्रसंग इसी भाषा में इस उपन्यास में हैं । पाठतीयता
गजब की है जो पढ़नेवालों को बगैर खत्म किए उठने नहीं देती है । इसी तरह से अगर हम
देखें तो दिव्यप्रकाश दुबे की कृतियां मुसाफिर कैफे, मसाला चाय और टर्म्स और
कंडीशन अपप्लाई भी पाठकों को खूब भाईं । अनु सिंह चौधरी की मम्मा की डायरी भी अपने
फॉर्म और भाषा की वजह से खूब पढ़ी गई और बिकी भी । ऐसे कई और लेखक हैं जो मिलकर एक
नई पीढ़ी का निर्माण कर रहे हैं ।
पहले
दो चार लेखक इस तरह के उपन्यास लिख रहे थे लेकिन अब तो कई लेखक सामने आ गए हैं और
वो हिंदी की स्थापित भाषा को चुनौती दे रहे हैं । इस चुनौती को मान्यता भी मिलनी
शुरू हो गई है लेकिन ये देखना दिलचस्प होगा कि इस तरह का लेखन हिंदी साहित्य में
स्थापित हो पाता है या फिर वो समय के साथ इतिहास में बिला जाता है । यह आशंका इस
वजह से भी है कि करीब दो साल पहले हिंदी में लप्रेक को लेकर खूब शोर शराबा हुआ । दो
तीन लप्रेक लेखकों की किताबें छपीं और उनमें से एकाध की बिकी भी, चर्चा भी हुई
लेकिन अब उसका शोर थम गया है । लप्रेक यानि लघु प्रेम कथा जो कि सोशल मीडिया आदि
पर लिखी जा रही थी । उसके शोर शराबे को देखकर उस वक्त ऐसा लग रहा था जैसे साहित्य
में एक नए विधा का जन्म हो रहा है लेकिन वो स्थायी नहीं हो पाया । जैसे अस्सी के
दशक में लघुकथा का बहुत शोर मचा था । उस वक्त भी इस तरह की बातें होने लगी थीं कि
हिंदी साहित्य में एक नई विधा का आगमन हुआ है और कुछ उत्साही आलोचक उसको साहित्यक
क्रांति के तौर पर पेश भी करने लगे थे जैसे कि लप्रेक को लेकर कुछ आलोचकनुमा लेखक
बहुत उत्साहित हो गए थे । वो शोर भी वक्त के साथ थम गया और अब बहुत कम लेखक लघुकथा
को अपना रहे हैं, नए लेखक तो लगभग ने के बराबर इस विधा में हाथ आजमा रहे हैं । किसी
भी विधा को स्थायित्व मिलने में काफी वक्त लगता है, और उस वक्त का इंतजार किया
जाना चाहिए ।
दरअसल
साहित्य में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने की हड़बड़ी बहुधा साहित्यक गड़बड़ियों को
जन्म देती है । साहित्य में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले ठहरकर, सोच-समझकर
किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए । सत्य व्यास, दिव्यप्रकाश दूबे, अनुसिंह चौधरी आदि
लेखकों ने जो नया रास्ता अपनाया है उसका स्वागत किया जाना चाहिए, इनका इत्साह भी
बढ़ाया जाना चाहिए लेकिन किसी नतीजे पर
पहुंचने के पहले आलोचकों को इंतजार भी करना चाहिए क्योंकि भवानी प्रसाद मिश्र कहते
हैं कि चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए/ बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए । अब इस चीज के स्वाद का
सिर चढ़ने के लिए तो इंतजार ही करना होगा, इस बीज के बेल बनकर फैलने का भी इंतजार
करना होगा क्योंकि साहित्यक चीज और साहित्यक बीज दोनों को फैलने में और अपना
प्रभाव छोड़ने में वक्त लगता है ।
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