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Saturday, December 3, 2016

बदलते वक्त में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

इन दिनों देश में अभिव्यक्ति की आजादी और उसके खतरों को लेकर जमकर चर्चा हो रही है । संपादकीय लिखे जा रहे हैं, प्राइम टाइम में खबरिया चैनलों पर बहस हो रही है । होनी भी चाहिए क्योंकि इस तरह की लगातार बहसों से लोकतंत्र जीवंत रहता है । परंतु अगर गंभीरता से विचार करें तो अभिव्यक्ति की आजादी पर होनेवाली बहस सरकार के पक्ष और विपक्ष की बहस होकर रह जा रही है । कोई भी विशेषज्ञ या स्तंभकार बुनियादी सवालों की ओर जाने से कतराते हैं । इमरजेंस-इमरजेंसी कहकर वो एक तरह से इमरजेंसी की भयावहता को कम कर देते हैं । नई पीढ़ी को इससे भ्रम हो सकता है कि इमरजेंसी में इन दिनों जितनी उदारता थी । आज एक बार फिर से अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर देशव्यापी गंभीर बहस की आवश्यकता है । आज जिस तरह से कई न्यूज चैनलों पर खबरों के नाम पर फिक्शन को बढ़ावा दिया जा रहा है या अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जाता है उस पर यह बहस होनी चाहिए कि मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा कहां तक है या उसकी कोई सीमा है भी या नहीं । अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कई बार लक्ष्मण रेखा पार हो जाती है, ये कहना मुश्किल है कि जानबूझकर या अनजाने में । चंद दिनों पहले बिग बॉस सीरियल में मशहूर क्रिकेटर युवराज सिंह के भाई जोरावर सिंह और उनकी पत्नी आकांक्षा के बीच का पारिवारिक विवाद उछला । अदालत में विचाराधीन होने के बावजूद उनकी अलग रह रही पत्नी को शो में आमंत्रित कर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का मौका दिया गया । शो के आगाज के वक्त आकांक्षा ने दर्शकों के सामने मंच से सरेआम जोरावर की प्रतिष्ठा को तार तार कर दिया । जोरावर को इस तरह से पेश किया गया जैसे उसने एक लड़की की जिंदगी बरबाद कर दी ।एकतरफा बातें हुई, जोरावर पर कई आरोप लगे, शो के दौरान भी बातीचत में ये मसला उठा । दूसरा पक्ष अपनी सफाई देने के लिए मौजूद नहीं था ।
अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा तो संविधान के पहले संशोधन के वक्त बहुत साफ कर दी गई थी । श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अखंड भारत के भाषणों पर लगाम लगाने के लिए और नेहरू- लियाकत समझौते को पूरी तरह से लागू करने को लेकर पहला संविधान संशोधन किया गया । तब बहाना बना था मद्रास से निकलनेवाली पत्रिका क्रासरोड और राष्ट्रीय संघ से जुड़ी पत्रिका आर्गेनाइजर में छप रहे लेख । क्रासरोड में नेहरू की नीतियों की जोरदार आलोचना की जाती थी, जिससे वो खफा रहते थे । दोनों मामलों में अदालत ने पत्रिकाओं की स्वंतत्रता पर अंकुश लगाने से मना कर दिया था । नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल के साथियों के साथ विचार करने के बाद संविधान में मिले अभिव्यक्ति की आजादी की लगभग पूर्ण स्वतंत्रता पर ही अंकुश लगाने का बिल संसद में दस मई उन्नीस सौ इक्यावन को पेश किया जिसे कि अठारह जून को पास कर दिया गया । मूल संविधान में प्राप्त अधिकारों में कई शर्तों का बंधन लगाया गया जिससे अभिव्यक्ति की आजादी की परिधि खींच दी गई । जबकि उस वक्त भी भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए मौजूद थी जिसको लगाकर अभिव्यक्ति की आजादी की पूर्णता को बाधित किया जा सकता था ।
टेलीविजन चैनलों की बहुतायत और इस माध्यम के जनमानस को प्रभावित करने की क्षमता को ध्यान में रखते हुए अभिव्यक्ति की आजादी या उसकी चौहद्दी को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है । न्यूज और मनोरंजन दोनों को मिलाकर इस मामले पर विचार किया जाना चाहिए । दरअसल टेलीविजन के कार्यक्रमों की सफलता का आकंलन जिस रेटिंग से होता है उसको लेकर कई बार प्रोड्यूसर्स में भ्रम की स्थिति रहती है । बहुधा चैनलों के कर्ताधर्ताओं को ये लगता है कि दर्शक संख्या बढ़ाने के लिए सेलिब्रिटी से जुड़े विवादों को हवा देने से रेटिंग हासिल की जा सकती है । इसी भ्रम में लक्ष्मण रेखा पार हो जाती है ।  हलांकि शोज के दौरान होनेवालों सर्वेक्षणों या वोटिंग से ये अवधारणा निगेट ही होती रही है । अगर इस तरह का आंकलन सही होता तो बिग बॉस के दर्शक जोरावर से अलग रह रही उनकी पत्नी आकांक्षा शर्मा को बनाए रखते ना कि दूसरे ही सप्ताह में उसको बिग बॉस के घर से बाहर निकाल देते । सवाल वही कि क्या टी आर पी हासिल करने के लिए किसी की निजता का हनन किया जा सकता है । निजता के हनन का मामला पहले भी पेश आ चुका है जब टेनिस स्टार सानिया मिर्जा और पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब की शादी का एलान हुआ था । कई बार कल्पना के आधार पर शोएब की पुरानी लव स्टोरीज परोसी गई थी । अभिषेक बच्चन की शादी के वक्त भी एक महिला उसकी पत्नी का दावा करते सामने आई थी और घंटों न्यूज चैनलों पर लाइव रही थी । क्या यहां किसी तरह की रोक होनी चाहिए । न्यूज चैनलों और अन्य टीवी चैनलों के स्वनियमन का मैकेनिज्म है लेकिन उसके दायरे को बढ़ाते हिए उसको मजबूत किए जाने की जरूरत है । मुंबई पर हुए आतंकी हमले के वक्त न्यूज चैनलों के कवरजे को लेकर सवाल उठे थे जिसके बाद सरकार ने आतंकवादी हमले के दौरान कवरेज को लेकर एक गाइडलाइन तो बना दी थी लेकिन न्यूज चैनलों के सबसे पहले की आपाधापी में गड़बड़ी हो जाती है । इसी तरह से अगर देखें तो हमारे चैनलों ने इस्लामिक स्टेट के बगदादी को कई बार मारा और फिर कई बार जिंदा कर दिया । उससे जुड़ी वारदातों को इस तरह से मिर्च मसाला लगाकर पेश किया जाता है जैसे लगता है कि कोई क्राइम थ्रिलर चल रहा हो । वीभत्स वीडियो को बार बार दिखाया जाता है और कई बार तो उसके कारनामे उसको समर्थकों के बीच हीरो भी बना देते हैं । अभिव्यक्ति की आजादी संविधान हमें देता है लेकिन वही संविधान कुछ जिम्मेदारियां भी तय करता है । हम सबको उसका गंभीरता से पालन करना चाहिए वर्ना सरकार को इस संवैधानिक अधिकार पर अंकुश लगाने के मौके मिलते रहेंगे । सत्ता अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं करती है और उसपर लगाम लगाने के मौके ढूंढती रहती है । अभिव्यक्ति की आजादी निर्बाध चलती रहे इसके लिए जरूरी है कि पत्रकारों की हर तरह से सुरक्षा की गारंटी हो। पत्रकारों को पेशेगत जोखिम उठाने होते हैं लेकिन उन जोखिमों को कम करने की कोशिशों से अभिव्यक्ति की आजादी मजबूत होगी और संविधान में मिले अधिकारों की रक्षा भी हो सकेगी।


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