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Sunday, December 18, 2016

जनता बेहाल, संसद ठप

लोकसभा के अनिश्चिकालीन स्थगन का ऐलान करने के लिए लोकसभा की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने जो संदेश पढ़ा उसमें सदन के नहीं चलने को लेकर संसद की छवि की चिंता दिखाई दे रही थी । सुमित्रा महाजन ने अपने व्क्तव्य में ऐसा संदेश भी दिया । सुमित्रा महाजन जब ब्यौरा दे रही थीं तो उन्होंने बताया कि लोकसभा की इक्कीस बैठकों में से सिर्फ 19 घंटे ही काम हो सका और करीब बानवे घंटे बर्बाद हुए । इसके अलावा भी उन्होंने लोकसभा में पूछे गए प्रश्नों के मौखिक और लिखित उत्तरों की संख्या बताई, मंत्रियों के भाषणों की संख्या गिनाई । कुल मिलाकर उनके संदेश से जो तस्वीर निकली वह बेहद चिंताजनक और संसदीय कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है । हलांकि सत्र के अंतिम दिन दिव्यांगो की बेहतरी के लिए लाए गए बिल को लोकसभा ने पास कर दिया । राज्यसभा इसको पहले ही पास कर चुकी है । जिस वक्त  बिल पास हो रहा था उस वक्त सदन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अलावा सोनिया गांधी भी मौजूद थीं । क्या ये इसके एक दिन पहले भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की खिन्नता के मद्देनजर ऐसा हुआ या फिर दिव्यांगो के मसले पर दोनों दल देश को अपने संवेदनशील होने का संदेश देना चाह रहे थे। ये सवाल भी खड़े हुए ।  दरअसल सत्र खत्म होने के एक दिन पहले लालकृष्ण आडवाणी ने अटल जी का हवाला देते हुए दुखी होकर कुछ सांसदों से अपने मन की बात की थी । अपने मन की बात में आडवाणी ने सदन की हालात पर चिंता जताते हुए खिन्न होकर इस्तीफे तक की बात कह डाली थी । उसके बाद राहुल गांधी ने लोकतांत्रिक अधिकार की रक्षा के लिए उठ खड़े होने के लिए उनका धन्यवाद भी किया था । खैर ये अवांतर प्रसंग है ।   
उधर राज्यसभा की हालात जरूर कुछ बेहतर रही लेकिन वहां भी हाल बुरा ही रहा । काम के लिहाज से देखें तो मई दो हजार चौदह में केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार के आने के बाद ये सबसे खराब संसदीय सत्र रहा जहां कामकाज लगभग ठप रहा । एक अनुमान के मुताबिक लोकसभा में करीब सत्रह फीसदी कामकाज हुआ तो राज्यसभा में इक्कीस फीसदी काम हुआ । कामकाज का यह आंकलन तय घंटे और सुचारू रूप से सदन चलने के समय के आधार पर किया जाता है । यहां यह बताना जरूरी है कि राज्यसभा में सरकार का नहीं बल्कि विपक्ष का बहुमत है ।
इसके पहले अगर हम देखें तो टेलीकॉम घोटाले के उजागर होने के बाद दो हजार दस का संसद का शीतकालीन सत्र भी विपक्ष की विरोध की बलि चढ़ गया था । उस वक्त विपक्षी दलों ने टूजी घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति यानि जेपीसी बनाने की मांग को लेकर संसद को ठप कर दिया था । दो हजार दस में लोकसभा में कुल छह फीसदी कामकाज हुआ था जबकि राज्यसभा में महज दो फीसदी काम हो पाया था । उस वक्त भी संसद के ठप होने को लेकर देशव्यापी बहस हुई थी । जिसमें उस वक्त राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा था कि संसद में अवरोध लोकतंत्र का ही एक रूप है । दो हजार बारह में एक लेख में अरुण जेटली ने लिखा था कि – अगर सिर्फ संसदीय जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए सदन में बहस चल रही हो तो ये विपक्ष का अधिकार है कि वो संसदीय हथियारों से सरकार के कारनामों को उजागर करने का प्रयास करे । इसके पहले दो हजार पांच में जब फूड फॉर ऑयल घोटाले में नटवर सिंह का नाम आया था तब भी भारतीय जनता पार्टी ने संसद के दोनों सदनों में जमकर हंगामा किया था और कार्रवाई बाधित की थी । उस वक्त अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ने सदन की कार्रवाई ठप करने को लेकर तमाम तरह के तर्क दिए थे जो अब उनके जी का जंजाल बन गए हैं ।  अब विपक्षी दल उनके ही तर्कों के आधार पर सदन नहीं चलने देने को सही ठहरा रहे हैं । लेकिन सवाल यही है कि क्या सदन को राजनीति का अखाडा बनने देना चाहिए या फिर वहां जनहित के मुद्दे पर, देशहित के मुद्दे पर राजनीति से उपर उठकर बहस होनी चाहिए ।
संसदीय लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च होती है और वहां के फैसलों और वहां होनेवाली हर हरकत पर पूरे देश और दुनिया की नजर रहती है । राजनीतिक दल राजनीति करेंगे, उनको करनी भी चाहिए लेकिन सदन को ठप करके ना तो विपक्ष को कुछ हासिल होगा और ना ही सत्तापक्ष को कुछ मिलेगा । अब अगर हम देखें तो नोटबंदी के मसले पर विपक्ष ने पूरे शीतकालीन सत्र को नहीं चलने दिया। बमुश्किल लोकसभा में नौ बिल पास हो सके । इक्कीस बैठकों में जनता से जुड़े सिर्फ एक सौ चौबीस मुद्दे उठाए जा सके । नियम 193 के अंतर्गत नोटबंदी पर अल्पकालिक चर्चा होनेवाली थी जो आंशिक तौर पर हो पाई । अब अगर हम इसके नुकसान का आंकलन करते हैं तो ये नुकसान कई स्तरों पर दिखाई देता है । जो सबसे पहला और अहम नुकसान दिखाई देता है वो है नोटबंदी जैसे अहम मुद्दे पर सदन में विचार नहीं पोया । जनता के चुने हुए नुमांइदे अपनी बात नहीं रख सके । ना तो सरकार को अपना पक्ष रखने का मौका मिला और ना ही विपक्ष को । इस तरह से जनता की तकलीफों को सामने लाने का विपक्ष ने एक मौका गंवा दिया । उधर सरकार नोटबंदी को लेकर अपनी मंशा को और साफ कर सकती थी । दोनों पक्षों की तरफ से मीडिया में बयानबाजी अवश्य हो रही लेकिन मीडिया के बयानों में वो गंभीरता और जिम्मेदारी नहीं आ सकती है जो सदन में होनेवाली चर्चा के दौरान दिखाई पड़ती है । संसद में सत्ता और विपक्ष दोनों को जिम्मेदारी से बात करनी होती है क्योंकि वहां अगर किसी ने भी बरगलाने की कोशिश की तो उसपर विशेषाधिकार हनन का मामला बन जाता है । नोटबंदी पर अगर रचनात्मक बहस होती तो देश को विपक्ष के मनमोन सिंह और पी चिंदबरम जैसे आर्थिक मसलों के जानकारों का पक्ष जानने का मौका मिलता । लेकिन ये हो ना सका । सरकार भी अपने उपर लग रहे तमाम आरोपों पर सफाई दे सकती थी जो हो ना सका ।  

दूसरा बड़ा नुकसान जनता की गाढ़ी कमाई के नुकसान का है । संसद की कार्रवाई चलाने के लिए होनोवाले खर्चे को लेकर कई तरह के अनुमान लगाए जाते हैं । उपलब्ध आंकड़ों और अनुमानों के आधार पर संसद को चलाने पर प्रति मिनट करीब तीन लाख से छह लाख रुपए तक के खर्च का अनुमान अलग अलग एजेंसी लगाती रही है । अगर हम इन अनुमानों का औसत निकालकर चार लाख रुपए प्रति मिनट भी मान लें तो शीतकालीन सत्र में जो वक्त बर्बाद हुआ उसने जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपए का नुकसान करवा दिया । इस नुकसान की जिम्मेदारी किसकी है । कौन देगा इसका हिसाब । संसदीय परंपरा में यह माना जाता है कि संसद को चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है । जब पिछले फेरबदल में वेंकैयानायडू की जगह पर अनंत कुमार को संसदीय कार्यमंत्री बनाया गया था तब यह माना गया था कि सरकार अनंत कुमार की छवि और सभी को मिलाकर चलने के स्वभाव का फायदा उठाना चाहती है लेकिन नतीजा अपेक्षा के अनुरूप नहीं निकल पाया । संभव है सरकार की कोई और रणनीति रही हो । अब सबकी निगाहें बजट सत्र पर टिक गई हैं । अगर तबतक नोटबंदी से हो रही दिक्कतें कम हो जाती हैं तो विपक्ष का विरोध हल्का हो जाएगा । उम्मीद की जानी चाहिए कि विपक्ष और सत्तापक्ष दोनों मिलकर संसद को चलने देंगे ताकि जनहित के मुद्दों पर  लोकतंत्र की सबसे बड़ी चौपाल पर बहस हो सके ।  

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