पिछले दिनों जब पटकथा लेखक और कवि जावेद अख्तर ने रवीन्द्रनाथ
टैगोर के आठ गीतों का हिंदी में अनुवाद किया था तो लोगों ने उन गीतों को खूब पसंद
किया था । इन गीतों को संगीता दत्ता ने उसके मूल धुन पर अपनी आवाज दी थी । शांति निकेतन
से लेकर लंदन तक में इसकी प्रस्तुति हुई थी । इन गीतों की लोकप्रियता से उत्साहित
जावेद अख्तर ने अब कविवर टैगोर की महान कृति गीतांजलि का अनुवाद करने का फैसला
किया है । गीतांजलि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की अमर कृति है जिसमें करीब डेढ सौ
से ज्यादा गीतों का संग्रह है जो कि उन्नीस सौ दस में प्रकाशित हुआ था और दो साल
बाद उसका अंग्रजी में अनुवाद छपा था। इसके एक साल बाद ही टैगौर को साहित्य के लिए
नोबेल पुरस्कार मिला था । दरअसल गुरूदेव में गीतों की समझ थी और वो अपनी कविताओं
में सुर, ताल और लय का खास ध्यान रखते थे । इसके अलावा उनकी कविताओं में इतनी गहरी
संवेदना है कि उसका अनुवाद करना बेहद जोखिम भरा है लेकिन जावेद अख्तर साहब के
अनुभव को देखते हुए ये उम्मीद की जा रही है कि अनुवाद में मूल संवेदना को वो सहेज
ले जाएंगे ।
दरअसल अगर हम देखें तो हिंदी में अनुवाद की स्थिति बहुत विषम है । हिंदी
साहित्य में गंभीरता से अनुवाद एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित नहीं हो पाई
है । अनुवाद और अनुवादक को हमेशा से हिंदी साहित्य में दोयम दर्जा का माना जाता
रहा है । अब इसकी क्या वजह रही है इसपर विचार करने का कोई अर्थ नहीं है लेकिन इतना
अवश्य है कि लंबे समय अनुवाद को लेकर हिंदी जगत में जो उदासीनता व्याप्त है उसने
नए लोगों को इस ओर आने के लिए प्रेरित ही नहीं किया और ज्यादातर स्थापित लोग अनुवाद
में रुचि नहीं लेते हैं । अनुवाद को लेकर साहित्य अकादमी में अवश्य कुछ काम हो रहे
हैं लेकिन स्वतंत्र रूप से इस दिशा में कोई भी संगठित कोशिश नहीं हो रही है । नीता
गुप्ता अवश्य अनुवाद के क्षेत्र में बेहद सक्रिय हैं लेकिन उनकी व्यक्तिगत कोशिश
अनुवाद को विधा के रूप में स्थापित कर पाएंगी इसमें संदेह है ।
जिस तरह से हिंदी के प्रकाशकों ने अनुवाद को लेकर रुख अपनाया हुआ
है वह भी बहुत उत्साहजनक नहीं है । कुछ ही लेखक अनुवाद का काम गंभीरता से कर रहे
हैं जबकि ज्यादातर तो गूगल के सहारे अनुवाद के धंधे में उतर गए हैं । अनुवाद एक
गंभीर कार्य है जिसमें लेखक की मूल संवेदना को बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होती है
। गूगल अनुवाद तो कर दे सकता है लेकिन उसकी यांत्रिकता और तकनीक लेखक की संवेदना
को नहीं पकड़ पाता है । कई बार तो गूगल के अनुवाद से अर्थ का अनर्थ हो जाता है । दिल्ली
विश्वविद्यालय में स्पेनिश की शिक्षिका प्रोफेसर मनीषा तनेजा के पास इस तरह के
अनुवाद के कई मजेदार किस्से हैं ।अनुवाद की स्थिति हिंदी में बेहतर हो इसके लिए
प्रकाशकों को एकजुट होकर इस विधा को बढ़ावा देना होगा । इस काम में साहित्य अकादमी
भी मदद कर सकती है और उसको भी जोड़ा जाना चाहिए । अनुवाद के लिए कई सरकारी संगठन
भी हैं पर उनका काम ज्ञात नहीं हो पाता है । अनुवाद का दूसरा बड़ा संकट है इसमें
कम पैसे का होना । ना तो प्रतिष्ठा और ना ही पैसा तो स्वांत:सुखाय कोई क्यों इस
विधा में हाथ आजमाने उतरेगा । अब अगर जावेद अख्तर जैसे वरिष्ठ लेखक इस काम को अपने
हाथ में लेगें तो संभव है कि युवाओं को अनुवाद के क्षेत्र में जाने की प्रेरणा मिल
सके । अगर ऐसा हो पाता है तो ये हिंदी के लिए बेहतर स्थिति होगी क्योंकि भाषाओं की
आवाजाही एक दूसरे को समृद्ध करती है ।
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