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Tuesday, December 20, 2016

देशद्रोह के घेरे में फिर लेखक

एक लेखक ने फेसबुक पर अपनी कृति का एक अंश पोस्ट किया, कुछ लोगों को ये राष्ट्रगान का अपमान लगा, उन्होंने पुलिस में शिकायत दी । हरकत में आई पुलिस ने आनन-फानन में लेखक को राष्ट्रद्रोह के मुकदमे में आरोपी बनाते हुए गिरफ्तार कर लिया । यह भी तब हुआ जब लेखक अग्रिम जमानत के लिए अदालत जाने की तैयारी में था । दरअसल ये पूरा वकया है केरल का जहां मलयालम लेखक और रंगकर्मी कमल चवारा को पुलिस ने राष्ट्रद्रोह यानि आईपीसी की धारा 124 ए के अंतर्गत गिरफ्तार किया । उनपर आरोप है कि उन्होंने फेसबुक पर अपने ताजा उपन्यास का एक अंश पोस्ट किया जिसमें उन्होंने लिखा – हर दिन चार बजे स्कूल में राष्ट्रगान के लिए खड़ा होना पड़ता था लेकिन पेशाब करना उनके लिए जन गण मन से ज्यादा अहम था लिहाजा वो स्कूल के सबसे अनुशासनहीन छात्र थे । संभव है कि कुछ लोगों को इसमें राष्ट्रगान का अपमान दिखता हो लेकिन किताब को और प्रसंग को समग्रता में देखा जाना चाहिए । बगैर समग्रता में किसी मसले को समझे और लेखक की मंशा को जाने बगैर राष्ट्रद्रोह में गिरफ्तारी सत्ता के दमनकारी चरित्र को ही उभारता है । राष्ट्रद्रोह की धारा में गिरफ्तारी के पहले यह काम पुलिस को करना चाहिए था । भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए साफ तौर पर कहता है कि कोई भी व्यक्ति जो अपने लेखन से या भाषण से या अपने क्रियाकलापों से विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ घृणा या विद्रोह की चिंगारी को हवा देता हो, इसमें आरोपित हो सकता है । लेकिन इस कानून में ही ये व्याख्या भी की गई है कि किन परिस्थितियों में लेखन, भाषण आदि राष्ट्रद्रोह नहीं होते हैं । सवाल यही उठता है कि इस तरह का लेखन राष्ट्रद्रोह कैसे हो गया । ज्यादा से ज्यादा पुलिस इस मामले में 295 ए की धारा लगा सकती है । भावनाओं के आहत होने के मामले में इसका प्रयोग उचित होता या राष्ट्रगान के अपमान से निबटने के लिए बनाए गए कानून का सहारा लेना चाहिए था । इस पूरे मसले पर सबसे दिलचस्प बयान केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री विजयन का आया है जिन्होंने इसके लिए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की सांप्रदायिक राजनीति को जिम्मेदार ठहराया है । उनका आरोप है कि संघ परिवार से जुड़े लोग लेखक को मुस्लिम राष्ट्रद्रोही करार दे रहे थे और सांप्रदायकिता का जहर फैला रहे थे । अगर ऐसा था तो क्या सरकार शिकायतकर्ताओं के दबाव में काम करती हैं । क्या कानून की धारा का उपयोग पुलिस किसी की मंशा को ध्यान में रखकर लगाती है या फिर उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ध्वजवाहक होने का दावा करनेवाली वामपंथी विचारधारा की सरकार ने भी वही किया जिसका आरोप उनके नेता दिल्ली पुलिस पर लगाती रही है । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर जब राष्ट्रहोह की धारा लगाकर उसको गिरफ्तार किया गया तो वामपंथियों का इल्जाम था कि दिल्ली पुलिस मोदी सरकार के इशारे पर अभिव्यक्ति की आजादी को दबाना चाहती है । अब क्या । अब तो सरकार भी आपकी और पुलिस भी आपकी, फिर भी राष्ट्रद्रोह का मुकदमा ? वामपंथियों का ये दोहरा चरित्र ही उनकी विचारधारा पर सवाल खड़े करती है । यही चरित्र उस वक्त पश्चिम बंगाल में भी देखने को मिला था जब वामपंथियों की सरकार ने कोलकाता में निर्वासित जीवन बिता रही तस्लीमा नसरीन को सूबे से निकाल दिया था । जब ममता बनर्जी की सरकार आई तब भी उनको बंगाल में रहने की इजाजत नहीं मिली । दरअसल सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है । सरकार चाहे किसी भी दल की हो उसका व्यवहार करीब करीब एक जैसा होता है । आजम खान पर फेसबुक पर टिप्पणी भी एक लेखक को जेल भिजवा चुकी है । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं लेकिन हाल के दिनों में इसको राष्ट्रद्रोह से जोड़ दिया जा रहा है गोया कोई नेता ही राष्ट्र हो गया हो । तमिल लेखक मुरुगन के मामले में भी ऐसा ही हुआ था । स्थानीय विरोध और पुलिस और प्रशासन के जबरन माफीनामे के बाद उन्होंने एक लेखक की मौत का एलान कर दिया था । मामला जब मद्रास हाईकोर्ट में पहुंचा तो विद्वान न्यायधीश संजयकिशन कौल ने करीब एक सौ साठ पन्नों का ऐतिहासिक फैसला दिया । फैसले में लेखकीय स्वतंत्रता को कायम रखने पर जोर देते हुए कहा गया है कि अगर कोई किसी किताब से इत्तफाक नहीं रखता है या उसमें लिखे हुए शब्दों से उसकी भावनाएं आहत होती हैं तो वो उसको अलग रख दे । फैसले में साफ कहा गया है कि कोई भी चीज जो पहले स्वीकार्य ना हो वो बाद में स्वीकार की जा सकती है । न्यायाधीश ने इस संबंध में लेडी चैटर्लीज लवर का उदाहरण भी दिया ।
अब वक्त आ गया है कि राष्ट्रद्रोह की इस धारा पर देशव्यापी बहस हो । जब संविधान बना था तब देश की स्थितियां कुछ और थीं और सत्तर साल बाद देश काफी बदल चुका है और बदल चुकी है देश के नेताओं की मानसिकता । पुलिस इस धारा का बेजा इस्तेमाल नहीं कर सके उसके लिए यह आवश्यक है कि या तो संसद या फिर देश की शीर्ष अदालत इस कानून की उन स्थितियों को और साफ करे जिनमें देशद्रोह लगाया जा सकता है ।


1 comment:

Jay dev said...

विस्मयकारी स्थिति ।