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Saturday, December 24, 2016

गांव के गायब होते शब्द

कुछ दिनों पहले बिहार के अपने गांव वलिपुर जाने का मौका मिला था । बिहार के अंग जनपद बसे गांव में अपने साथियों और रिश्तेदारों से बात करने के दौरान मुझे लगा कि बातचीच की भाषा नकली होती जा रही है । गांव के शब्दों का जो अपनापन होता था या ऱिर जिन शब्दों को लेकर रिश्तों की इंटेसिटी महसूस की जा सकती थी उन शब्दों को तथाकथित आधुनिक शब्दों ने विस्थापित कर दिया । भौजी को अब बच्चे वहां भाभी कहने लगे थे । भौजी शब्द में जो अपनापन है वो भाभी में कभी नहीं आ सकता है । नदिया के पार का गाना याद करिए जहां नायक भाई की शादी के बाद गाता है – सांची कहे तोरे आवन से हमरी अंगना में आई बहार भौजी । अब इस पूरे गाने में भौजी शब्द जो प्रभाव पैदा करता है वो भाभी शब्द नहीं कर सकता है । हद तो ये थी कि बच्चों के माता-पिता भी इससे खुश नजर आ रहे थे । खुशी इस बात कि उनका बेटा आधुनिक हो रहा है और वो गांव में रहते हुए शहर के शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है । अब पता नहीं ये कौन सी मानसिकता गांवों में घर करती जा रही है कि वहां रहनेवाले शहरी होने की होड़ में जुटे हैं । शब्दों के इस विस्थापन से तो दर्द ही होता है । काफी दिनों बाद गांव गया था और शब्दों के विस्थापन ने दुखी कर दिया । अंगिका में बोले जानेवाले शब्दों को लेकर विचार कर रहा था तो कई ऐसे शब्द सुनने को मिले जो अब वहां की स्थानीय बोली, अंगिका, से भी गायब हो रहे हैं । उदाहरण के तौर पर वहां आटा को चिकसा कहा जाता था, रोटी को मांड़ो, झोला को धोकरा, पॉकेट को जेबी, बच्चों को बुतरू, नवजात शिशु को फुलवा, दुल्हन को कनियां बुलाया जाता था । बदलते वक्त के साथ ये सारे शब्द प्रचलन से गायब होते चले गए । चिंता और ज्यादा इस बात को लेकर हो रही थी कि शब्दों के गायब होते जाने पर किसी को मलाल भी नहीं था बल्कि अपने शब्दों के छूटते जाने की खुशी नजर आ रही थी ।  
कुछ योगदान आधुनिक बनने की मानसिकता तो कुछ टीवी के घर घर में पहुंचने और बच्चों की
उसकी भाषा अपनाने से हुई है । यह बहुत स्वाभाविक है कि शब्द प्रचलन से गायब होते हैं । हिंदी में भी कई शब्द है जो प्रचलन से गायब हो रहे हैं- जैसे सरिता, जल, पवन आदि, लेकिन चिंता तब होती है प्रचलन से हटने के साथ साथ वो बोलियों और भाषा से गायब भी हो जाती है । भाषा और बोलियों के संरक्षण के लिए हर स्तर पर गंभीर कोशिश की जानी चाहिए । हमारे देश में हर राज्य के लिए दूरदर्शन का अलग चैनल है जहां स्थानीय बोली वाणी में कार्यक्रम होते हैं । उन चैनलों पर इस तरह के शब्दों के इस्तेमाल के साथ कार्यकआम बनने चाहिए लेकिन वहां भी परिवेश के अनुसार वेशभूषा तो दिखाई दे जाता है लेकिन भाषा आधुनिक हो जाती है ।  सरकारें अपनी गति से ये काम करती हैं लेकिन वो गति भाषा और बोलियों के शब्द संरक्षण के लिए बहुत धीमी है । यह काम पत्रकारिता और साहित्य में होना आवश्यक है क्योंकि ये दोनों विधाएं आम आदमी के बोलचाल को गहरे तक प्रभावित करती हैं । बोलचाल में शब्दों का प्रचलन संरक्षण का एक बेहतर विकल्प है । पत्रकारिता खासकर टीवी पत्रकारिता में आसान शब्दों पर जोर दिया जाता है । वाक्यों को और शब्दों को आसान बनाने के चक्कर में बहुधा अंग्रेजी के वैसे शब्दों का प्रयोग भी हो जाता है जो अनपेक्षित है । अखबारों में भी अंग्रेजी के इस तरह के शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से शुरू हो गया है ।
अभी हाल ही में एक बार फिर से एक अंग्रेजी शब्दकोश ने उन शब्दों की सूची जारी की है जो उन्होंने हिंदी समेत विश्व की दूसरी भाषाओं से लेकर अंग्रेजी में मान्यता दी हैं । यह अंग्रेजी का लचीलापन है जो उसको दूसरी भाषा के शब्दों को अपनाने में मदद करती है । अंग्रेजी जब इन शब्दों को गले लगाती है तो वो अपने शब्दों को छोड़ती नहीं है बल्कि उसको संजोकर रखते हुए अपने दायरे का विस्तार करती है । हिंदी में इससे उलट स्थिति दिखाई देती है । हिंदी की ताकत स्थानीय बोलियों के शब्द भी हैं । पिछले दिनों भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने सात हिंदी अखबारों का कई दिनों तक अध्ययन किया और फिर उसके आधार पर पंद्रह हजार सात सौ सैंतीस अंग्रेजी के शब्दों को चिन्हित किया जो अखबारों में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं । अंग्रेजी के इन शब्दों का पांच श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया । विश्वविद्यालय ने एक ऐसी श्रेणी बनाई है जिसमें अंग्रेजी के वैसे शब्दों को रखा गया है जिसका उपयोग बाजिब माना गया । लेकिन इस सर्वेक्षण की सबसे बड़ी खामी ये रही कि इसने एक वैसे अखबार को शामिल नहीं किया जो सबसे ज्यादा अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करता है । बहरहाल हम बात हिंदी के शब्दों के संरक्षण की कर रहे थे ।
पत्रकारिता के बाद या यों कहें कि उससे पहले साहित्यक लेखन पर ये जिम्मेदारी आती है कि वो हिंदी के शब्दों की भाषा और बोलियों को बचाने का उपक्रम करे । इस संबंध में हमें जयशंकर प्रसाद का स्मरण होता है । हिंदी में भारतेंदु ने खड़ी बोली शुरू की जिसमें हिंदी और उर्दू के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होता था लेकिन जयशंकर प्रसाद ने अपनी रचना में देहाती शब्दों का जमकर प्रयोग किया । जयशंकर प्रसाद के निबंधों की एक किताब है – काव्य और कला तथा अन्य निबंध । इस किताब में जयशंकर प्रसाद ने जिस तरह की भाषा और शब्दों का प्रयोग किया है वो खड़ी बोली से बिल्कुल भिन्न है । जयशंकर प्रसाद की ये महत्वपूर्ण किताब है । प्रसाद ने उर्दू मिश्रित हिंदी को छोड़कर एक नई भाषा गढ़ी और ये उनका हिंदी पर बड़ा उपकार है । उर्दू में जो लालित्य है वही लालित्य उन्होंने हिंदी के शब्दों में पैदा की । खड़ी बोली के पैरोकारों ने उस वक्त प्रसाद के संग्रह आंसू को दरकिनार कर उनका उपहास किया था । आंसू में जो उनकी कविताएं हैं उसमें शायरी का आनंद मिलता है । हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी इस किताब को हिंदी में शायरी की पहली किताब कहते हैं । हिंदी के कई कथाकारों ने स्थानीयता के नाम पर बोलियों को अपनी रचना में स्थान दिया लेकिन उत्तर आधुनिक होने के चक्कर में बोली के शब्दों का अपेक्षित प्रयोग नहीं कर पाए और उसको हिंदी के प्रचलित शब्दों से विस्थापित कर दिया । जिस कालखंड को अपनी कृति में दर्शाते हैं उस काल-खंड में बोली जाने वाली भाषा और उसके शब्दों को बहुधा छोड़ते नजर आते हैं । इसका नतीजा यह होता है कि बोलियों के शब्द छूटते चले जाते हैं और पहले प्रचलन से और फिर स्मृति से भी गायब हो जाते हैं । हिंदी में जरूरत इस बात की भी है कि कोई लेखक जयशंकर प्रसाद जैसा साहस दिखाएं और अपने मौजूदा दौर की भाषा की धारा के विपरीत तैरने की हिम्मत करे और करुणा कल्पित ह्रदय में क्यों विकल रागिनी बहती जैसी रूमानी पंक्ति लिख सके । जयशंकर प्रसाद ना तो खड़ी बोली से प्रभावित हुए थे और ना ही गालिब या रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाषा से जबकि उस दौर के साहित्य लेखन पर इन दोनों का काफी असर दिखाई देता है । इस वक्त साहित्य सृजन में भाषा के साथ उस तरह की ठिठोली नहीं दिखाई देती है जैसी कि होली में देवर अपनी भाभी के साथ करता है । भाषा के साथ जब लेखक ठिठोली करेगा तो उसको अपने शब्दों से खेलना होगा । समकालीन साहित्य सृजन में हो ये रहा है कि कथ्य तो एक जैसे हैं ही भाषा भी लगभग समान होती जा रही है । कभी कभार किसी कवि की कविता में या किसी कहानी में इस तरह के शब्दों का प्रयोग होता है जो भाषा को तो चमका ही देता है बिसरते जा रहे शब्दों को जीवन भी देता है । शब्दों को बचाने में साहित्यकारों की बड़ी भूमिका है । इस भूमिका का निर्वहन गंभीरता के साथ करना चाहिए । बिहार के ही महान लेखक फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी रचनाओं में स्थानीय शब्दों का ऐसा अद्धभुत प्रयोग किया कि वो अबतक पाठकों की स्मृति में है । पीढ़ियां बदल गई, आदतें बदल गईं लेकिन रेणु के ना तो पाठक कम हुए और ना ही प्रशंसक । ये भाषा की ही ताकत है कि रेणु के बाद बिहार में कहानीकारों की कई पीढ़ियां आईं लेकिन उनमें से ज्यादातक रेणु के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी किताब कबीर में में लिखा है कि कबीर वाणी के डिक्टेटर थे और वो चाहते थे वो करते थे और भाषा में वो हिम्मत नहीं थी कि उनको रोक सके । क्या आज शब्दों को बचाने के लिए हिंदी को कबीर जैसा एक भाषा का डिक्टेटर चाहिए । संभव है ऐसा होने से कुछ हो सके लेकिन जहां तक भाषा को बचाने की बात है तो हिंदी के वापस गांव की ओर ले जाने की जरूरत है । मुक्तिबोध ने कहा भी था कि श्रेष्ठ विचार बोझा उठाते वक्त आते हैं तो हमें लगता है कि श्रेष्ठ भाषा और उसको व्यक्त करने की परिस्थियां भी गांवों में बेहतर हो सकती हैं । शहरों और महानगरों की भाषा और भाव दोनों नकली होते हैं जिससे ना तो श्रेष्ठ रचना निकलती है और ना ही पाठकों का परिष्कार होता है । संत तुकाराम ने भी कहा था- शब्द ही एकमात्र रत्न हैं/जो मेरे पास है/शब्द ही एकमात्र वस्त्र है /जिन्हें मैं पहनता हूं/शब्द ही एकमात्र आहार है /जो मुजे जीवित रखता है/शब्द ही एकमात्र धन है /जिसे मैं लोगों में बांटता हूं ।


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