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Monday, December 5, 2016

फिडेल के मूल्यांकन पर सवाल !

फिडेल कास्त्रो । इस नाम को हम भारत के लोग एक महान क्रांतिकारी के रूप में जानते हैं । हमें यह भी बताया जाता रहा है कि फिडेल ने अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति से लंबे समय तक लोहा लिया, बल्कि उसके ग्यारह राष्ट्रपति भी उनका बाल बांका नहीं कर सके । उन्होंने क्यूबा की जनता को मुक्ति आदि भी दिलाई यह भी बोला सुना जाता रहा है । अभी हाल ही में उनका निधन हुआ । दिवंगत आत्मा को याद करते हुए श्रद्धाभाव में कई लेख आदि भारत में भी छपे । श्रद्धाभाव से जो भी लिखा जाता है उसमें भक्ति स्वत: आ जाती है इस लिहाज से उन लेखों को उसी आईने में देखा जाना चाहिए । फिडेल कास्त्रो ने खुद एक बार अपने भाषण में कहा था – आप सब मेरी निंदा करो, जमकर करो लेकिन इतिहास मुझे सारे आरोपों से मुक्त कर देगा । इतिहास फिडेल के साथ क्या करेगा ये तो समय के गर्व में है लेकिन फिडेल कास्त्रो ने क्यूबा में अपने चारदशक के शासनकाल के दौरान जो किया उसपर विचार करना आवश्वयक है । फिडेल कास्त्रो ने देश की जनता को मुक्ति दिलाने के नाम पर संघर्, तो किया लेकिन प्रकरांतर में उस मुक्ति संघर्ष की आड़ में वहां की जनता की आजादी छीन ली । वो सैंतालीस सालों तक वहां के सर्वेसर्वा रहे और बीमार होते ही अपने भाई राउल कास्त्रो को गद्दी सौंप दी । यह कैसी मुक्ति है जिसने वहां की जनता को एक लगभग राजतंत्र दिया । अमेरिका से संघर्ष के नाम पर फिडेल ने अपने देश में खुद के विरोध की आवाज को लगातार कुचला । क्यूबा की जनता के पास अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं था लेकिन फिर भी कम्युनिस्टों का प्रचार तंत्र ऐसा कि बुर्जुआ से लोहा लेने के नाम पर फिडेल के तमाम फरेब को दरकिनार कर उनको मुक्तियोद्धा के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा, उनके जीवन काल में और अब उनकी मृत्यु के बाद भी। भारत में भी अभिव्यक्ति की आजादी के कम्युनिस्ट चैंपियनों ने क्यूबा में इसपर पाबंदी के खिलाफ कभी मुंह खोला हो, ऐसा ज्ञात नहीं है । क्यूबा में मानवाधिकार हनन पर कहीं कोई लेख कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों द्वारा लिखा गया हो, प्रकाश में नहीं आया ।  
पूंजीवाद से लड़ाई के नाम पर इस योद्धा ने क्यूबा की जनता के साथ तमाम वो काम किए जो एक तानाशाह कर सकता था । इस बात को लेकर खूब शोर मचता है कि अमेरिका से संघर्ष करते रहने के बावजूद फिडेल कास्त्रो ने क्यूबा में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया । अब यहां यह प्रश्न कभीनहीं उठाया जाता कि क्या तानाशाही ही विकास के लिए जमीन तैयार कर सकती है ।  पूरी दुनिया में कई ऐसे देश हैं जिन्होंने बगैर क्यूबा जैसी पाबंदियों और ज्यादतियों के लोगों के जीवन स्तर में सकारात्नक और बुनियादी बदलाव किए । गंभीरता से वस्तुनिष्ठता के साथ विचार करने पर यह बात समझ में आती है कि क्यूबा में मुक्ति के बाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता लगभग नहीं थी । यही हाल  तमाम वामपंथी शासन वाले देशों में देखने को मिलती है जहां समानता के अधिकार को हासिल करने के लिए व्यक्तिगत आजादी को सूली पर टांग दिया जाता रहा है । चाहे रूस हो या चीन या फिर कोई अन्य कम्युनिस्ट देश । इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि कम्युनिस्ट विचारधारा में सत्ता के विरोध के लिए कोई जगह नहीं है । चीन में थ्येनअनमन चौक पर क्या हुआ उसको दोहराने की जरूरत नहीं है । रूस में सौ सालों से क्या हो रहा है उसके बारे में बात करने का कोई अर्थ नहीं है ।

सवाल यही उठता है कि जब हम किसी भी शख्सियत का मूल्यांकन करते हैं तो उसको समग्रता में देखने की जरूरत होती है । फिडेल कास्त्रो के लगभग चार दशक के शासनकाल में क्यूबा में क्या हुआ इसपर विचार करते हुए बहुधा विश्लेषक फिडेल के क्रांतिकारी छवि के बोझ तले दबे रहे हैं जिसकी वजह से उनका समग्र मूल्यांकन नहीं हो पाया है । अमेरिकी साम्राज्यवाद से लोहा लेने के नाम पर देश की जनता की व्यक्तिगत आकांक्षाओं का गला घोंटना और अपने सिद्धांतों को बलपूर्वक लागू करवाना फिडेल को कम्युनिस्ट तानाशाहों की श्रेणी में खड़ा कर देता है । यह कैसी विचारधारा है जो बात तो समानता के अधिकार की करती है लेकिन उसकी आड़ में तानाशाही को बढ़ावा देती है । ये कैसी विचारधारा है जो मुक्तियोद्धाओं को तानाशाह बनने का आधार प्रदान करती है । ये कैसी विचारधारा है जो लोकतंत्र के नाम पर एक अलग किस्म की राजशाही को बढ़ावा देती है । संभवत: यही वजह है कि लंबे समय तक कई देशों की जनता इस विचारधारा के रोमांटिसिज्म में रहने के बावजूद धीरे धीरे उसकी असलियत को समझते हुए उससे किनारा कर लिया । जिस विचारधारा की बुनियाद ही हिंसा पर रखी जाए वो लंबे समय तक चल नहीं सकती है । अगर हम देखें तो चीन से लेकर रूस तक सत्ता हासिल करने के लिए कम्युनिस्टों ने खूनी संघर्ष ही किया । स्टालिन का साथ पाकर माओ ने चीन में कितने जुल्म किए इसपर पूरी दुनिया के राजनीतिक विश्लेषकों ने लिखा । बावजूद इसके इस विचारधारा को गरीबों और वंचितों के हक की विचारधारा कहकर प्रचारित किया जाता रहा है, कैसी बिडंबना और कैसा प्रचारतंत्र है ।  

2 comments:

Anonymous said...

इन वामपंथियों ने तो पूरे विश्व में अराजकता फैला रखी है।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 8 - 12- 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2550 में दिया जाएगा ।
धन्यवाद